हिंसा से शांति की ओर..
रायपुर,गुरूवार दिनांक 19 अगस्त 2010
हिंसा से शांति की ओर..
क्या माओवादी हिंसा छोड़कर मुख्य धारा से जुडेंगे? इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं जितना हम समझते हैं। स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन में माओवादियों से हिंसा छोड़ बातचीत की अपील का प्रति साद अच्छा निकला है। माओवादी चाहते हैं कि रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी की मध्यस्थता में यह बातचीत हो। इस आधार पर नक्सलियों से बातचीत की पहल हो तो आश्चर्य नहीं। माओवादियों ने वार्ता की पहली शर्त के तौर पर तीन महीने के संघर्ष विराम का प्रस्ताव रखा है। अगर वार्ता होती है तो संघर्ष विराम के प्रस्ताव को मानने में सरकार को कोई परेशानी नहीं होगी। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने लाल गढ़ की रैली में माओवादियों की उस मांग का समर्थन किया था जिसमें उन्होंने माओवादी नेता आज़ाद की कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मौत की जांच की मांग की थी। ममता ने माओवादियों से हिंसा छोड़ शांति के साथ भारतीय संविधान के तहत प्रमुख धारा से जुड़ने की अपील भी की थी। नक्सली नेता किशनजी ने अब सरकार के शांति पहल की तरफ कदम बढा़ते हुए तीन महीने के संघर्ष विराम की बात कही है। फिलहाल वार्ता का कोई एजेण्डा तैयार नहीं है लेकिन राजनीतिक दलों की तरफ से जो प्रतिक्रियाएँ आ रही है। वह इस कदम को आगे बढऩे से रोक सकती है। माकपा नेता सीताराम येचुरी ने ममता बनर्जी को मध्यस्थ बनाने की बात पर यह कहा है कि इससे यह साबित होता है कि नक्सली और तृणमूल कांग्रेस मिलकर काम करते हैं। वैसे देखा जा ये तो नक्सलियों से शांति वार्ता की पहल का सभी वर्ग को स्वागत करना चाहिये। चूंकि यह समस्या इतनी उग्र रूप ले चुकी है कि अब इस पर अगर बातचीत की बात उठती है, तो इस पर कुछ ठोस कदम भी उठाना चाहिये। चूंकि अब तक जो लोग सिर्फ बंदूक की भाषा से बातचीत करते रहे हैं उनके मुंह से अब शांति की बात निकलने लगी है तो इसमें अकेली ममता बनर्जी को ही क्यों मध्यस्थ बनाया जाए। उनके साथ देश की उन सभी प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को भी शामिल किया जा ये जो नक्सली हिंसा को पसंद नहीं करते। नक्सली भी अपने साथ अपने प्रमुख साथियों को मिलायेंगे यह निश्चित है। ऐसे में हिंसा त्यागने वाली बातचीत कहां तक सफल होगी, यह देखना महत्वपूर्ण है। इससे पहले यह भी देखना होगा कि सरकार नक्सलियों के प्रस्तावों को कितना स्वीकार करती है? नक्सलियों का यह प्रस्ताव कोई चाल तो नहीं है, इस पर भी लोग संदेह कर रहे हैं। सरकार के सामने अहम जिम्मेदारियां हैं। एक लम्बे अर्से से चल रहे इस हिंसक आंदोलन पर पहली शांति वार्ता क्या रंग लायेगी? यह तो अभी से नहंीं कहा जा सकता किंतु इस वार्ता की सफलता- असफलता पर ही आंदोलन का पूरा दारोमदार टिका हुआ है।
हिंसा से शांति की ओर..
क्या माओवादी हिंसा छोड़कर मुख्य धारा से जुडेंगे? इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं जितना हम समझते हैं। स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन में माओवादियों से हिंसा छोड़ बातचीत की अपील का प्रति साद अच्छा निकला है। माओवादी चाहते हैं कि रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी की मध्यस्थता में यह बातचीत हो। इस आधार पर नक्सलियों से बातचीत की पहल हो तो आश्चर्य नहीं। माओवादियों ने वार्ता की पहली शर्त के तौर पर तीन महीने के संघर्ष विराम का प्रस्ताव रखा है। अगर वार्ता होती है तो संघर्ष विराम के प्रस्ताव को मानने में सरकार को कोई परेशानी नहीं होगी। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने लाल गढ़ की रैली में माओवादियों की उस मांग का समर्थन किया था जिसमें उन्होंने माओवादी नेता आज़ाद की कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मौत की जांच की मांग की थी। ममता ने माओवादियों से हिंसा छोड़ शांति के साथ भारतीय संविधान के तहत प्रमुख धारा से जुड़ने की अपील भी की थी। नक्सली नेता किशनजी ने अब सरकार के शांति पहल की तरफ कदम बढा़ते हुए तीन महीने के संघर्ष विराम की बात कही है। फिलहाल वार्ता का कोई एजेण्डा तैयार नहीं है लेकिन राजनीतिक दलों की तरफ से जो प्रतिक्रियाएँ आ रही है। वह इस कदम को आगे बढऩे से रोक सकती है। माकपा नेता सीताराम येचुरी ने ममता बनर्जी को मध्यस्थ बनाने की बात पर यह कहा है कि इससे यह साबित होता है कि नक्सली और तृणमूल कांग्रेस मिलकर काम करते हैं। वैसे देखा जा ये तो नक्सलियों से शांति वार्ता की पहल का सभी वर्ग को स्वागत करना चाहिये। चूंकि यह समस्या इतनी उग्र रूप ले चुकी है कि अब इस पर अगर बातचीत की बात उठती है, तो इस पर कुछ ठोस कदम भी उठाना चाहिये। चूंकि अब तक जो लोग सिर्फ बंदूक की भाषा से बातचीत करते रहे हैं उनके मुंह से अब शांति की बात निकलने लगी है तो इसमें अकेली ममता बनर्जी को ही क्यों मध्यस्थ बनाया जाए। उनके साथ देश की उन सभी प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को भी शामिल किया जा ये जो नक्सली हिंसा को पसंद नहीं करते। नक्सली भी अपने साथ अपने प्रमुख साथियों को मिलायेंगे यह निश्चित है। ऐसे में हिंसा त्यागने वाली बातचीत कहां तक सफल होगी, यह देखना महत्वपूर्ण है। इससे पहले यह भी देखना होगा कि सरकार नक्सलियों के प्रस्तावों को कितना स्वीकार करती है? नक्सलियों का यह प्रस्ताव कोई चाल तो नहीं है, इस पर भी लोग संदेह कर रहे हैं। सरकार के सामने अहम जिम्मेदारियां हैं। एक लम्बे अर्से से चल रहे इस हिंसक आंदोलन पर पहली शांति वार्ता क्या रंग लायेगी? यह तो अभी से नहंीं कहा जा सकता किंतु इस वार्ता की सफलता- असफलता पर ही आंदोलन का पूरा दारोमदार टिका हुआ है।
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