गरीबी हटाने का लक्ष्य अभी कोसो दूर!


भारत छोड़ो आंदोलन की 75 वीं वर्षगांठ पर संसद में वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा था 1991 के बाद हर सरकार के दौर मे प्रगति हुई है प्रगति की दर बढ़ी है. गरीबी भी कम हुई है और जन-जीवन का स्तर भी लेकिन देश की सबसे बड़ी चुनौती गरीबी आज भी है.1991 के बाद नई सरकार ने रास्ता बदलने की कोशिश जरूर की लेकिन गरीबी हटाने का लक्ष्य अभी कोसो दूर है.जन-जीवन का स्तर सुधरा है. किन्तु आज भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो गरीबी रेखा से नीचे हैं. बड़ी आवश्यकता देश के  संसाधन बढ़े और जहां विकास नहीं हो रहा, उसके लिए काम करें. जिस वर्ग की बात अरूण जेठली ने की थी वह बड़ा वर्ग ऐसा है जो अशिक्षित है ऐसा व्यक्ति काम की कमी के कारण कुछ कार्य नहीं कर पाता उसके दिमाग में कुछ और ही घूमता रहता है.अधिकांश अपराधी प्रवृति की ओर बढ़ते हैं. दूसरा कारण विकास योजनाओं में कमी एवं उदासीनता है जिसके चलते भ्रष्टाचार की स्थिति बनती है .बाल मज़दूरी और दास प्रथा को समाप्त करने कानून जरूर बने लेकिन अमल कितना हुआ?गरीबी का एक बड़ा कारण जो हम देखते हैं वह है कृषी का पिछड़ा होना. उद्योगों को बढ़ावा देने के चक्कर में हम अपने अन्नदाताओ को भूल गये. इसलिए भी की अब कोई यह कार्य करना पसंद नहीं करता और यह पिछड़ती जा रही है.आय की समानता ना होना भी गरीबी को बढ़ावा देने का एक मुख्य कारक है. गरीबी-भुखमरी अभी भी भारत में अपने अस्तित्व का दावा कर रही है, हम खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर राष्ट्र्र होने में गर्व करते हैं किन्तु आर्थिक रूप से प्रगतिशील राष्ट्र्र के लिये भुखमरी एक कलंक की तरह है. भोजन, जो जीवन निर्वाह के लिये बहुत जरूरी है, की उपलब्धता के मामले में अमीर और गरीबों के बीच असमानताओं का मुकाबला करने में भी असमर्थ है. संविधान प्रदत्त अधिकारों में अमीरों और गरीबों के बीच बहुत सी असमानताएं मौजूद हैं.किसी भी व्यक्ति के लिये भुखमरी वो स्थिति है जिसमें कैलोरी ऊर्जा कम ग्रहण की जाती है और ये कुपोषण का गंभीर रुप है जो इसकी देखभाल न करने पर मृत्यु का रुप ले लेती है. दुनिया में 7.1 अरब लोगों में से 870,00,000 (870 मिलियन) लोग स्थायी कुपोषण से पीडित है और लगभग ऐसे सभी लोग विकासशील देशों में रहते है. एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार, कुपोषण भारतीय प्रवृत्तियाँ प्रदर्शित करती हैं कि प्रति व्यक्ति पोषक तत्वों की खपत गिर रही है आँकड़े इस सन्दर्भ में बहुत शर्मनाक है कि भुखमरी का उन्मूलन करने के उपायों के लिए चिंतन करने में सक्षम होने के बजाय, हम अपनी आर्थिक उत्पादकता में गौरवान्वित हो रहे है, दीर्घकाल में एक देश की आर्थिक प्रगति कोई मायने नहीं रखती जब तक कि ये अपने नागरिकों के जीवन के रखरखाव के लिए आवश्यक बुनियादी खाद्य को सुनिश्चित नहीं करता है.गरीबी-भुखमरी  से लडऩे में हमारे यहां की प्रमुख बाधा सरकारी योजनाओं के उचित क्रियान्वयन में  कमी है जिसके चलते सभी को भोजन अपलब्ध कराने की दिशा में निर्देशित की जाती है किन्तु योजनाओं का क्रिर्यान्वयन ठीक प्रकार से हो रहा है या नहीं इसको सुनिश्चित करने के लिये या तो स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार है या फिर सरकार के अधिकारियों के बीच एक उदासीनता, लापरवाही और कार्य के प्रति लगन का न होना है.हमारी खाद्य वितरण प्रणाली को इस मामले में दोषपूर्ण माना जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट  मिड-डे मील स्कीम, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल के लिये योजनाओं के प्रावधान की तरफ कदम उठाने के लिए सरकार को  निर्देशित कर चुका है किन्तु  एक तरह से देखा जाये तो सतही तौर पर ही क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है.असल में हमें गरीबी के संकेतकों को विशिष्ट बनाने की जरूरत है. जहाँ तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संबंध है, ये सर्वविदित वास्तविकता है कि लगभग 51प्रतिशत प्रदत्त खाद्य भ्रष्टाचार के कारण उपलब्ध नहीं हो पाता और जिसे खुले बाजार में ऊँची कीमतों पर बेचा जाता है.सूखा या बाढ़ के अवसर पर खाद्य उत्पादन और सब्सिडी बिल में निहित मूल्य वृद्धि जो कई जरुरतमंद लोगों को सब्सिडी के लिये पात्रता के दायरे से बाहर करता है आदि के सन्दर्भ में कोई स्पष्टता नहीं है। हमें वितरण प्रणाली से लीकेज को कम करने और इसे पारदर्शी बनाने की जरूरत है।

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