उनका पेट नहीं भरता!
रायपुर,शनिवार दिनांक 21 अगस्त 2010
उनका पेट नहीं भरता!
यह कैसी जिद? क्यों चाहते हैं सांसद भारत सरकार के सचिव से एक रूपये ज्यादा वेतन। और वेतन बढ़ाने की मांग पर यह कैसी राजनीति? संसद में अपना वेतन बढ़ाने के लिये गैर भाजपा सांसदों ने जो तरीका अपनाया क्या वह इन सांसदों के क्षेत्र के लोगों की भावनाओं के अनुरूप है? सांसद मुलायम सिंह हो या लालूप्रसाद यादव जन सेवा के लिये यह सांसद ग़रीबों के मसीहा बनने में कभी पीछे नहीं हटते, लेकिन जिस तरह यह करोड़पति सांसद अपनी जन सेवा का दाम लगा रहे हैं। यह तो यही दर्शा रहा है कि इन्हें अपने आगे पीछे घूमने वाली जनता से ज्यादा अपने व अपने परिवार की खुशहाली की चिंता है। केन्द्रीय कैबिनेट ने शुक्रवार को सांसदों का वेतन तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ा दिया लेकिन गैर भाजपा सांसदों को यह वृद्धि मंज़ूर नहीं। वे इसे कम आंकते हुए वेतन बढ़ाकर अस्सी हजार एक रूपये रखने की मांग कर रहे हैं। यह वेतन भारत सरकार के सचिवों के वेतन से एक रूपये ज्यादा है। अभी बढ़ा वेतन, कार्यालय खर्च, निर्वाचन क्षेत्र भत्ता और पेंशन मिलाकर वेतन करीब डेढ़ लाख रूपये तक पहुंच जायेगा। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि सांसदों के वेतन में बढ़ोत्तरी से प्रजातांत्रिक व्यवस्था को खतरा पैदा हो गया है। सांसदों का वेतन बढ़ाने का अर्थ यह हुआ कि निचले स्तर तक की संपूर्ण व्यवस्था में लगे लोग अब एक तरह से नई वेतन वृद्धि के हक़दार हो गये। क्या इसका असर देश की विधान सभाओं, नगर निकायों और अन्य सार्वजनिक संस्थानो पर नहीं पड़ेगा? पिछली बार विधायकों ने वेतन वृद्वि की मांग उठाई थी। इस बार यह मांग सांसदों की तरफ से उठी और उन्होंने इसे मनवा भी लिया। अब अलग- अलग प्रदेशों के विधायकों की तरफ से यह मांग उठे गी और इसको सदन में सर्वसम्मति मिलेगी। चूंकि पूरे भारत में एक यही मामला ऐसा है जिसपर सभी एक हो जाते हैं। इस बढ़ोत्तरी से देश में चुनाव लड़ने के तौर तरीके में भारी परिवर्तन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता । राजनीति एक तरह से नौकरी का रूप ले बैठी है। लोग पचास हजार रूपये मासिक वेतन और भत्ता पाने के लिये एक दूसरे का सर फोडऩे लगेगें। यूं ही बेरोज़गारी से तंग युवकों के लिये एक तरह से सरकार ने राजनीति को उद्योग का रूप देकर जनता के सामने पेश कर दिया है। जिसमें जितनी कूबत हो वह सामने आये और मुकाबला करें और लाटरी अपने हाथ कर ले। असल बात तो यह है कि सरकार ने अब चुनाव में हिंसा को आमंत्रित कर लिया है। सांसदों का वेतन अस्सी हजार एक करने की मांग को लेकर शुक्रवार को जो कुछ संसद में हुआ वह अभूतपूर्व था। धरना और मोक पार्लियामेंट आयोजित कर उन सांसदों ने लालू को अपना प्रधानमंत्री घोषित कर सरकार को बर्खास्त करने जैसी कार्रवाई की। यह सब अन्य राजनीतिक दल मजा लेकर देखते रहे शायद, यह सोचकर कि उनके इस विरोध का लाभ उन्हें भी तो मिलेगा।
उनका पेट नहीं भरता!
यह कैसी जिद? क्यों चाहते हैं सांसद भारत सरकार के सचिव से एक रूपये ज्यादा वेतन। और वेतन बढ़ाने की मांग पर यह कैसी राजनीति? संसद में अपना वेतन बढ़ाने के लिये गैर भाजपा सांसदों ने जो तरीका अपनाया क्या वह इन सांसदों के क्षेत्र के लोगों की भावनाओं के अनुरूप है? सांसद मुलायम सिंह हो या लालूप्रसाद यादव जन सेवा के लिये यह सांसद ग़रीबों के मसीहा बनने में कभी पीछे नहीं हटते, लेकिन जिस तरह यह करोड़पति सांसद अपनी जन सेवा का दाम लगा रहे हैं। यह तो यही दर्शा रहा है कि इन्हें अपने आगे पीछे घूमने वाली जनता से ज्यादा अपने व अपने परिवार की खुशहाली की चिंता है। केन्द्रीय कैबिनेट ने शुक्रवार को सांसदों का वेतन तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ा दिया लेकिन गैर भाजपा सांसदों को यह वृद्धि मंज़ूर नहीं। वे इसे कम आंकते हुए वेतन बढ़ाकर अस्सी हजार एक रूपये रखने की मांग कर रहे हैं। यह वेतन भारत सरकार के सचिवों के वेतन से एक रूपये ज्यादा है। अभी बढ़ा वेतन, कार्यालय खर्च, निर्वाचन क्षेत्र भत्ता और पेंशन मिलाकर वेतन करीब डेढ़ लाख रूपये तक पहुंच जायेगा। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि सांसदों के वेतन में बढ़ोत्तरी से प्रजातांत्रिक व्यवस्था को खतरा पैदा हो गया है। सांसदों का वेतन बढ़ाने का अर्थ यह हुआ कि निचले स्तर तक की संपूर्ण व्यवस्था में लगे लोग अब एक तरह से नई वेतन वृद्धि के हक़दार हो गये। क्या इसका असर देश की विधान सभाओं, नगर निकायों और अन्य सार्वजनिक संस्थानो पर नहीं पड़ेगा? पिछली बार विधायकों ने वेतन वृद्वि की मांग उठाई थी। इस बार यह मांग सांसदों की तरफ से उठी और उन्होंने इसे मनवा भी लिया। अब अलग- अलग प्रदेशों के विधायकों की तरफ से यह मांग उठे गी और इसको सदन में सर्वसम्मति मिलेगी। चूंकि पूरे भारत में एक यही मामला ऐसा है जिसपर सभी एक हो जाते हैं। इस बढ़ोत्तरी से देश में चुनाव लड़ने के तौर तरीके में भारी परिवर्तन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता । राजनीति एक तरह से नौकरी का रूप ले बैठी है। लोग पचास हजार रूपये मासिक वेतन और भत्ता पाने के लिये एक दूसरे का सर फोडऩे लगेगें। यूं ही बेरोज़गारी से तंग युवकों के लिये एक तरह से सरकार ने राजनीति को उद्योग का रूप देकर जनता के सामने पेश कर दिया है। जिसमें जितनी कूबत हो वह सामने आये और मुकाबला करें और लाटरी अपने हाथ कर ले। असल बात तो यह है कि सरकार ने अब चुनाव में हिंसा को आमंत्रित कर लिया है। सांसदों का वेतन अस्सी हजार एक करने की मांग को लेकर शुक्रवार को जो कुछ संसद में हुआ वह अभूतपूर्व था। धरना और मोक पार्लियामेंट आयोजित कर उन सांसदों ने लालू को अपना प्रधानमंत्री घोषित कर सरकार को बर्खास्त करने जैसी कार्रवाई की। यह सब अन्य राजनीतिक दल मजा लेकर देखते रहे शायद, यह सोचकर कि उनके इस विरोध का लाभ उन्हें भी तो मिलेगा।
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