लालगढ़ की लाली से श्वेत कबूतर...
रायपुर मंगलवार। दिनांक 10 अगस्त 2010
लाल गढ़ की लाली से श्वेत कबूतर पकड़ने
ममता का प्रयास या कुछ ओर...
सोमवार को पश्चिम बंगाल के लाल गढ़ में आयोजित तृणमूल कांग्रेस की रैली को किस नज़रिये से देखा जा ये? क्या यह देश की राजनीति में एक नया समीकरण है या यूं ही आमतौर पर होने वाली एक रैली? इस रैली का राजनीतिक पहलू यह है कि रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता श्रीमती ममता बनर्जी ने पहली बार माओवादी अथवा नक्सलियों की हिमाकत की व उन्हें इस रैली में शामिल किया। इसे एक उपलब्धि ही माना जा सकता है शायद कांग्रेस ने यही देखकर ममता का समर्थन किया है। नक्सली हिंसा का जहां तक सवाल है वह एक तरफ है तथा निंदनीय है लेकिन अब तक सरकार के सारे शांति प्रयासों को ठुकरा चुके नक्सलियों अथवा माओवादियों को एक मंच पर लाने व उन्हें सही राह पर लाने का प्रयास ममता ने किया तो कहीं इसमें गलती नजर नहीं आ रही, इसके पीछे उनका राजनीतिक मकसद हो सकता है लेकि न अब तक जो विफल प्रयास सरकार करती रही है उसमें यदि यह एक मील का पत्थर बन रहा है तो क्या बुराई है? ममता ने रैली में नक्सलियों का समर्थन किया है किन्तु उन्होनें उनकी हिंसा को पूरी तरह नकार दिया है यह कहते हुए कि आज़ाद को पुलिस ने फ र्जी मुठभेड़ में मारा है उसकी जांच होनी चाहिये। नक्सलियों व सरकार के बीच शांति की पेशकश करने वाले स्वामी अग्रिवेश, लेखिका महाश्वेता देवी तथा मेघापाटकर भी यही बात कर रही हैं। आज़ाद के मुठभेड़ में मारे जाने को फ़र्ज़ी बताकर ममता ने नक्सलियों के अब तक इस मामले को लेकर उनके द्वारा की जा रही हिंसा को लगाम देने उनका समर्थन अपनी ओर खींचने में जहां बहुत हद तक कामयाबी पाई है वहीं यह भी संभव हो गया है कि वे माओवादियों को हिंसा के मार्ग को बदलकर मुख्य धारा में लाने विशिष्ट भूमिका निभाने की स्थिति में आ गई है। आगे आने वाले दिन इस मामले में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। ममता के इस कदम की विपक्ष के एक बड़े वर्ग ने नक्सलियों का समर्थक कहते हुए आलोचना की है किंतु आलोचकों को इस पूरे मामले का विश्लेषण करके भी देखना चाहिये कि ममता बनर्जी कहीं भी नक्सली हिंसा की बात नहीं कर रही है। वे भी हर कोई की तरह नक्सली हिंसा को नकारती है किंतु इसके माध्यम से वे नक्सलियों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास भी कर रही हैं। इसका दूसरा पहलू यह है कि कई राज्यों में सक्रिय नक्सलियों का समर्थन अपनी ओर खींचने के राजनीतिक मकसद में भी वे कामयाब हो गई। एक तरह से उन्होंने लाल गढ़ फ़तह कर लिया। तृणमूल की इस रैली में भारी मात्रा में नक्सलियों की उपस्थिति साथ में कांग्रेस का समर्थन भविष्य में नक्सली मूवमेंट को एक नई राह प्रदान करेगा जो शायद हिंसा की जगह शांति का हो सकता है। ममता बनर्जी ने अपने इस मकसद के लिये लालगढ को चुना जो नक्सलियों का एक तरह से सबसे बड़ा गढ़ है। देशभर में नक्सली मूवमेंट अलग अलग समूहों में बंटा हुआ है-लाल गढ़ की लाली से जो राजनीतिक गठजोड़ शुरू हुआ है वह आगे आने वाले समय में कौन सा रास्ता पकड़ना है यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
लाल गढ़ की लाली से श्वेत कबूतर पकड़ने
ममता का प्रयास या कुछ ओर...
सोमवार को पश्चिम बंगाल के लाल गढ़ में आयोजित तृणमूल कांग्रेस की रैली को किस नज़रिये से देखा जा ये? क्या यह देश की राजनीति में एक नया समीकरण है या यूं ही आमतौर पर होने वाली एक रैली? इस रैली का राजनीतिक पहलू यह है कि रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता श्रीमती ममता बनर्जी ने पहली बार माओवादी अथवा नक्सलियों की हिमाकत की व उन्हें इस रैली में शामिल किया। इसे एक उपलब्धि ही माना जा सकता है शायद कांग्रेस ने यही देखकर ममता का समर्थन किया है। नक्सली हिंसा का जहां तक सवाल है वह एक तरफ है तथा निंदनीय है लेकिन अब तक सरकार के सारे शांति प्रयासों को ठुकरा चुके नक्सलियों अथवा माओवादियों को एक मंच पर लाने व उन्हें सही राह पर लाने का प्रयास ममता ने किया तो कहीं इसमें गलती नजर नहीं आ रही, इसके पीछे उनका राजनीतिक मकसद हो सकता है लेकि न अब तक जो विफल प्रयास सरकार करती रही है उसमें यदि यह एक मील का पत्थर बन रहा है तो क्या बुराई है? ममता ने रैली में नक्सलियों का समर्थन किया है किन्तु उन्होनें उनकी हिंसा को पूरी तरह नकार दिया है यह कहते हुए कि आज़ाद को पुलिस ने फ र्जी मुठभेड़ में मारा है उसकी जांच होनी चाहिये। नक्सलियों व सरकार के बीच शांति की पेशकश करने वाले स्वामी अग्रिवेश, लेखिका महाश्वेता देवी तथा मेघापाटकर भी यही बात कर रही हैं। आज़ाद के मुठभेड़ में मारे जाने को फ़र्ज़ी बताकर ममता ने नक्सलियों के अब तक इस मामले को लेकर उनके द्वारा की जा रही हिंसा को लगाम देने उनका समर्थन अपनी ओर खींचने में जहां बहुत हद तक कामयाबी पाई है वहीं यह भी संभव हो गया है कि वे माओवादियों को हिंसा के मार्ग को बदलकर मुख्य धारा में लाने विशिष्ट भूमिका निभाने की स्थिति में आ गई है। आगे आने वाले दिन इस मामले में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। ममता के इस कदम की विपक्ष के एक बड़े वर्ग ने नक्सलियों का समर्थक कहते हुए आलोचना की है किंतु आलोचकों को इस पूरे मामले का विश्लेषण करके भी देखना चाहिये कि ममता बनर्जी कहीं भी नक्सली हिंसा की बात नहीं कर रही है। वे भी हर कोई की तरह नक्सली हिंसा को नकारती है किंतु इसके माध्यम से वे नक्सलियों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास भी कर रही हैं। इसका दूसरा पहलू यह है कि कई राज्यों में सक्रिय नक्सलियों का समर्थन अपनी ओर खींचने के राजनीतिक मकसद में भी वे कामयाब हो गई। एक तरह से उन्होंने लाल गढ़ फ़तह कर लिया। तृणमूल की इस रैली में भारी मात्रा में नक्सलियों की उपस्थिति साथ में कांग्रेस का समर्थन भविष्य में नक्सली मूवमेंट को एक नई राह प्रदान करेगा जो शायद हिंसा की जगह शांति का हो सकता है। ममता बनर्जी ने अपने इस मकसद के लिये लालगढ को चुना जो नक्सलियों का एक तरह से सबसे बड़ा गढ़ है। देशभर में नक्सली मूवमेंट अलग अलग समूहों में बंटा हुआ है-लाल गढ़ की लाली से जो राजनीतिक गठजोड़ शुरू हुआ है वह आगे आने वाले समय में कौन सा रास्ता पकड़ना है यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
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