यह कैसा रोना?
रायपुर सोमवार। दिनांक 6 सितंबर 2010
यह कैसा रोना?
हर बार की तरह इस बार भी शिक्षक दिवस आया और चला गया। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन को सन् 1962 के बाद से लगातार शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान कुछ शिक्षकों का सम्मान व पुरस्कार बांट कर सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। इसके बाद शिक्षकों, छात्रों या स्कूल की तरफ झांकने का प्रयास भी नहीं किया जाता। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल पिछले एक साल से कह रहे हैं कि- देश में शिक्षकों की कमी है। इस महत्वपूर्ण पद पर बैठकर जनता से यह कहना कि शिक्षकों की कमी है- बड़ा बेतुका लगता है। शिक्षकों की कमी को क्या जनता पूरा करेगी? लाखों- करोड़ों नौजवान शिक्षक बन सेवा करने के लिये तैयार बैठै हैं। क्यों नहीं सरकार ऐसी कोई योजना बनाती कि वह शिक्षकों की कमी को तत्काल पूरा किया जा सके। पूरे वर्ष भर यह कहते हुए हमें थका दिया कि शिक्षकों की कमी है, लेकिन न शिक्षकों की भर्ती हुई और न ही प्रशिक्षण केन्द्र खोले गये। शिक्षकों के वेतन में अभी कुछ वर्षो में वृद्धि हुई है। नहीं तो फटे हाल रहने वाले शिक्षकों को देख इस नौकरी में किसी की दिलचस्पी भी नहीं रहती थी। अब कम से कम युवाओं में शिक्षक बनने की इच्छा जागृत हुई है, तो सरकार को भी चाहिये कि वह सिर्फ लालीपॉप दिखा कर इन बे चारों को बेवकूफ़ न बनायें। देशभर में शिक्षकों की कमी है, यह अभी की बात नहीं वर्षो से ऐसा ही चला आ रहा है। अपने मंत्रियों, सांसदों ,विधायकों का वेतन झटके में तीन सौ से चार सौ गुना बढ़ जाता है लेकिन शिक्षकों की भर्ती या स्कूल भवन बनाने की बात आती है, तो सरकार आकर्षक बातें कर छलावे में रखती है। देश के स्कूलों में न केवल शिक्षकों की कमी है बल्कि फिजिकल इंस्ट्रक्टरों का भी अभाव है। स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाने के लिये आवश्यक साधन सुलभ नहीं है, तो खेल मैदान और प्रयोगशालाओं का भी अभाव है। सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में पढने वाले गरीब व मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे होते हैं। जिन्हें सुख- सुविधाओं के बगैर भी पढ़ा दिया, तो वे चू- चपड़ नहीं करते। जहां तक सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता का सवाल है। यह निजी स्कूलों के मुकाबले बहुत ही निम्र स्तर की है। सरकारी स्कूलों से निकलने वाले बहुत से छात्र उपराष्ट्रपति तक के ओहदे तक पहुंचे हैं किंतु इसे हम स्कूल की योग्यता नहीं मानते। बल्कि ऐसे प्रतिभावान और साधनविहीन तथा पढ़ाई को अपने जीवन का ध्येय मानकर चलने वाले छात्रों के कारण ऐसा होता है। वरना आज सरकारी स्कूल में पढ़कर निकलने वाले कितने ही छात्र देश में बड़े से बड़े ओहदे पर बैठे होते।
यह कैसा रोना?
हर बार की तरह इस बार भी शिक्षक दिवस आया और चला गया। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन को सन् 1962 के बाद से लगातार शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान कुछ शिक्षकों का सम्मान व पुरस्कार बांट कर सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। इसके बाद शिक्षकों, छात्रों या स्कूल की तरफ झांकने का प्रयास भी नहीं किया जाता। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल पिछले एक साल से कह रहे हैं कि- देश में शिक्षकों की कमी है। इस महत्वपूर्ण पद पर बैठकर जनता से यह कहना कि शिक्षकों की कमी है- बड़ा बेतुका लगता है। शिक्षकों की कमी को क्या जनता पूरा करेगी? लाखों- करोड़ों नौजवान शिक्षक बन सेवा करने के लिये तैयार बैठै हैं। क्यों नहीं सरकार ऐसी कोई योजना बनाती कि वह शिक्षकों की कमी को तत्काल पूरा किया जा सके। पूरे वर्ष भर यह कहते हुए हमें थका दिया कि शिक्षकों की कमी है, लेकिन न शिक्षकों की भर्ती हुई और न ही प्रशिक्षण केन्द्र खोले गये। शिक्षकों के वेतन में अभी कुछ वर्षो में वृद्धि हुई है। नहीं तो फटे हाल रहने वाले शिक्षकों को देख इस नौकरी में किसी की दिलचस्पी भी नहीं रहती थी। अब कम से कम युवाओं में शिक्षक बनने की इच्छा जागृत हुई है, तो सरकार को भी चाहिये कि वह सिर्फ लालीपॉप दिखा कर इन बे चारों को बेवकूफ़ न बनायें। देशभर में शिक्षकों की कमी है, यह अभी की बात नहीं वर्षो से ऐसा ही चला आ रहा है। अपने मंत्रियों, सांसदों ,विधायकों का वेतन झटके में तीन सौ से चार सौ गुना बढ़ जाता है लेकिन शिक्षकों की भर्ती या स्कूल भवन बनाने की बात आती है, तो सरकार आकर्षक बातें कर छलावे में रखती है। देश के स्कूलों में न केवल शिक्षकों की कमी है बल्कि फिजिकल इंस्ट्रक्टरों का भी अभाव है। स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाने के लिये आवश्यक साधन सुलभ नहीं है, तो खेल मैदान और प्रयोगशालाओं का भी अभाव है। सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में पढने वाले गरीब व मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे होते हैं। जिन्हें सुख- सुविधाओं के बगैर भी पढ़ा दिया, तो वे चू- चपड़ नहीं करते। जहां तक सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता का सवाल है। यह निजी स्कूलों के मुकाबले बहुत ही निम्र स्तर की है। सरकारी स्कूलों से निकलने वाले बहुत से छात्र उपराष्ट्रपति तक के ओहदे तक पहुंचे हैं किंतु इसे हम स्कूल की योग्यता नहीं मानते। बल्कि ऐसे प्रतिभावान और साधनविहीन तथा पढ़ाई को अपने जीवन का ध्येय मानकर चलने वाले छात्रों के कारण ऐसा होता है। वरना आज सरकारी स्कूल में पढ़कर निकलने वाले कितने ही छात्र देश में बड़े से बड़े ओहदे पर बैठे होते।
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