हर मोड़ पर भ्रष्ट तंत्र,
दिनांक 9 सितंबर 2010
हर मोड़ पर भ्रष्ट तंत्र, किसे दोष दे जब
लगाम लगाने वाले ही मजबूर हों!
यह स्टेटस सिंबल बन चुका है कि आज जिसके पास जितना धन है वह समाज में उतना ही सम्मानित व्यक्ति है, लेकिन कोई यह नहीं जान पा रहा कि यह पैसा उसने कैसे और किन गलत तरीकों से कमाया है। भ्रष्टाचार के चरम को हर कोई जानता है-हमारा सरकारी तंत्र भी इससे वाक़िफ़ है। मगर सवाल उठता है कि वह असहाय क्यों? कई ऐसे व्यक्ति आज सम्माननीय हैं,चूंकि वह करोड़पति है। उसके कपड़े सफेद हैं किंतु उस सफेदी के पीछे किसी गरीब के आँसू और गले से कटा हुआ खून भी मिला हुआ है। यह सब जानते हुए भी ऐसा क्यों हैं? चूंकि हमारी संपूर्ण व्यवस्था आज भ्रष्ट हो चुकी है। अब तक केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त पद पर रहे प्रत्यूष सिन्हा भी यह जानते थे कि देश में हर तीसरा व्यक्ति पूरी तरह भ्रष्ट है। जबकि हर दूसरा व्यक्ति इसकी कगार पर है। उनकी राय में भ्रष्टाचार की समस्या के कारण ही मुख्यत: लोगों की धन- संपदा बढ़ रही है। वे क्यों अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के इस चक्र को देखते रहें क्यों उन्होनें अपने मिले अधिकारों का उपयोग नहीं किया? पद पर से हटने के बाद कुछ भी कहकर अपने हाथ साबुन से धो लेने से क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदार से मुक्ति पा ली है? देश की व्यवस्था में ही बैठे लोग सब जानते हुए भी जब रिटायरमेंट पर पहुंच जाते हैं तो अपने कुछ न कर सकने और कमजोरी को क्यों उजागर करते हैं? सिन्हा जैसे लोग कितने ही ईमानदार हों किन्तु वे जानते हुए भी चुप बैठे रहे यह उनकी सबसे बड़ी गलती है। अपने पावर का उपयोग नहीं किया और अब मीडिया के सामने वही कह रहे हैं कि देश का हर तीसरा व्यक्ति भ्रष्ट है। क्या यह बात पुरानी नहीं हो चुकी कि देश में लोग भौतिकतावादी होते जा रहे हैं? इसका बढावा किसने दिया? हमने वह जमाना भी देखा है, जब कोई भ्रष्ट व्यक्ति सिर उठाकर चलने का साहस नहीं कर सकता था। इसमें सामाजिक कलंक लगने का अहसास जुड़ा था, लेकिन यह स्थिति कैसे खत्म हो गई? इसलिये कि बदलते परिवेश ने इस व्यवस्था को मान्यता दे दी। इसके लिये कौन जिम्मेदार है? आम जनता जो इस माहौल में पिस गई या वह कथित ईमानदार तंत्र जिसमें सिन्हा जैसे लोग भी मौजूद रहे। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। 20 फीसदी भारतीयों की अंतरात्मा आज भी ईमानदार है। 30 फीसदी लोग भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। जबकि शेष लोग इसकी कगार पर हैं। क्या सरकारी तंत्र चाहे तो इस बदलाव की इतिश्री यहीं नहीं कर सकता? वन विभाग,सिचाई विभाग, लोक निर्माण विभाग जैसे कमाऊ विभाग के एक अदने से कर्मचारी की संपत्ति करोडा़ें रूपये की है। तो उनके बड़े आका कितने बड़े पूजिपति होंगे इसकी कल्पना की जा सकती है? सरकार में बैठे लोगों में इतनी हिम्मत क्यों नहीं है कि ऐसे लोगों की अवैध कमाई को तत्काल जप्त कर देश के विकास कार्यो में लगाया जाये। क्यों ऐसा कानून नहीं बनाया जाता कि असीमित संपत्ति रखने वाला सरकारी व्यक्ति तत्काल पूछ- परख में ही जबाब नहीं देता। तो उसे फिर यह संपत्ति रखने का कोइ्र्र अधिकार न रहे... लेकिन नहीं, हमारा कानून इसकी इजाजत नहीं देता-कुछ ही दिनों में वह भ्रष्ट व्यक्ति सरकार की नौकरी में आ जाता है तथा प्रोमोशन भी पा जाता है-कई ऐसे उदाहरण हंै। अभी विश्व में चौरासवें क्रम पर कल पहले क्रम पर हम भ्रष्टाचार के मामले में आ जाये तो आश्चर्य नहीं। जिस तेज गति से यह सब बढ़ रहा है, वह तो यही कहता है। भ्रष्टाचार के इस बाजार में देश के लाखों या कहें करोड़ों गरीब और मध्यमवर्गीय मूलभूत सहूलियतें हासिल करने के क्रम में सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को रिश्वत देने मजबूर है। क्योंकि इसके बिना उनका काम चल ही नहीं सकता। चाहे इसके लिये उन्हें अपनी जमीन या इज़्ज़त ही बेचनी क्यों न पड़े।
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हर मोड़ पर भ्रष्ट तंत्र, किसे दोष दे जब
लगाम लगाने वाले ही मजबूर हों!
यह स्टेटस सिंबल बन चुका है कि आज जिसके पास जितना धन है वह समाज में उतना ही सम्मानित व्यक्ति है, लेकिन कोई यह नहीं जान पा रहा कि यह पैसा उसने कैसे और किन गलत तरीकों से कमाया है। भ्रष्टाचार के चरम को हर कोई जानता है-हमारा सरकारी तंत्र भी इससे वाक़िफ़ है। मगर सवाल उठता है कि वह असहाय क्यों? कई ऐसे व्यक्ति आज सम्माननीय हैं,चूंकि वह करोड़पति है। उसके कपड़े सफेद हैं किंतु उस सफेदी के पीछे किसी गरीब के आँसू और गले से कटा हुआ खून भी मिला हुआ है। यह सब जानते हुए भी ऐसा क्यों हैं? चूंकि हमारी संपूर्ण व्यवस्था आज भ्रष्ट हो चुकी है। अब तक केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त पद पर रहे प्रत्यूष सिन्हा भी यह जानते थे कि देश में हर तीसरा व्यक्ति पूरी तरह भ्रष्ट है। जबकि हर दूसरा व्यक्ति इसकी कगार पर है। उनकी राय में भ्रष्टाचार की समस्या के कारण ही मुख्यत: लोगों की धन- संपदा बढ़ रही है। वे क्यों अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के इस चक्र को देखते रहें क्यों उन्होनें अपने मिले अधिकारों का उपयोग नहीं किया? पद पर से हटने के बाद कुछ भी कहकर अपने हाथ साबुन से धो लेने से क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदार से मुक्ति पा ली है? देश की व्यवस्था में ही बैठे लोग सब जानते हुए भी जब रिटायरमेंट पर पहुंच जाते हैं तो अपने कुछ न कर सकने और कमजोरी को क्यों उजागर करते हैं? सिन्हा जैसे लोग कितने ही ईमानदार हों किन्तु वे जानते हुए भी चुप बैठे रहे यह उनकी सबसे बड़ी गलती है। अपने पावर का उपयोग नहीं किया और अब मीडिया के सामने वही कह रहे हैं कि देश का हर तीसरा व्यक्ति भ्रष्ट है। क्या यह बात पुरानी नहीं हो चुकी कि देश में लोग भौतिकतावादी होते जा रहे हैं? इसका बढावा किसने दिया? हमने वह जमाना भी देखा है, जब कोई भ्रष्ट व्यक्ति सिर उठाकर चलने का साहस नहीं कर सकता था। इसमें सामाजिक कलंक लगने का अहसास जुड़ा था, लेकिन यह स्थिति कैसे खत्म हो गई? इसलिये कि बदलते परिवेश ने इस व्यवस्था को मान्यता दे दी। इसके लिये कौन जिम्मेदार है? आम जनता जो इस माहौल में पिस गई या वह कथित ईमानदार तंत्र जिसमें सिन्हा जैसे लोग भी मौजूद रहे। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। 20 फीसदी भारतीयों की अंतरात्मा आज भी ईमानदार है। 30 फीसदी लोग भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। जबकि शेष लोग इसकी कगार पर हैं। क्या सरकारी तंत्र चाहे तो इस बदलाव की इतिश्री यहीं नहीं कर सकता? वन विभाग,सिचाई विभाग, लोक निर्माण विभाग जैसे कमाऊ विभाग के एक अदने से कर्मचारी की संपत्ति करोडा़ें रूपये की है। तो उनके बड़े आका कितने बड़े पूजिपति होंगे इसकी कल्पना की जा सकती है? सरकार में बैठे लोगों में इतनी हिम्मत क्यों नहीं है कि ऐसे लोगों की अवैध कमाई को तत्काल जप्त कर देश के विकास कार्यो में लगाया जाये। क्यों ऐसा कानून नहीं बनाया जाता कि असीमित संपत्ति रखने वाला सरकारी व्यक्ति तत्काल पूछ- परख में ही जबाब नहीं देता। तो उसे फिर यह संपत्ति रखने का कोइ्र्र अधिकार न रहे... लेकिन नहीं, हमारा कानून इसकी इजाजत नहीं देता-कुछ ही दिनों में वह भ्रष्ट व्यक्ति सरकार की नौकरी में आ जाता है तथा प्रोमोशन भी पा जाता है-कई ऐसे उदाहरण हंै। अभी विश्व में चौरासवें क्रम पर कल पहले क्रम पर हम भ्रष्टाचार के मामले में आ जाये तो आश्चर्य नहीं। जिस तेज गति से यह सब बढ़ रहा है, वह तो यही कहता है। भ्रष्टाचार के इस बाजार में देश के लाखों या कहें करोड़ों गरीब और मध्यमवर्गीय मूलभूत सहूलियतें हासिल करने के क्रम में सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को रिश्वत देने मजबूर है। क्योंकि इसके बिना उनका काम चल ही नहीं सकता। चाहे इसके लिये उन्हें अपनी जमीन या इज़्ज़त ही बेचनी क्यों न पड़े।
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