सेलरी बढौत्तरी-सवाल नैतिकता और नीयत का...!




 प्रत्यके व्यक्ति का यह बुनियादी हक है कि वह अधिक से अधिक संसाधनों को जुटाए और अपनी जिंदगी को बेहतर करने के लिये हर संभव उपाय करे. हमारा संविधान भी इस बारे में किसी तरह का कोई बंधन नहीं लगाता. किसी भी परिधि में इस बात की पूरी छूट है,पर सवाल नैतिकता व नीयत का है. मामला परिस्थिति का भी है-इस बात पर किसी को विरोध नहीं होना चाहिये कि किस फलाने पेशेवर व्यक्ति का वेतन कितना हो और उसकी  तनखाह में कितने की बढौत्तरी की जानी चाहिये. पिछले वर्षो के दौरान हम  विधानसभाओं में अपने वेतन के लिए उदारमना विधायकों को देखते रहे हैं, उनसे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जहां अपनी बात आती है वहां माननीय वैसा रुख नहीं अपनाते, चाहे विपक्ष ही क्यों न हो ! सही है, वैसा रुख अपनाएं ही क्यों? लेकिन जिन राज्यों के आर्थिक हालात ठीक नहीं होने की बात कही जाती हैं जहां कभी बाढ़ आने,पाला पडऩे, सूखे के भयंकर हालात हों,जहां किसान आत्महत्या कर रहे हो और जहां का आम जन किसी न किसी तरह की मुश्किल में गुजारा कर रहा हो, वहां ऐसी उदारता क्यों नहीं दिखाई जाती? अगर हम छत्तीसगढ  की बात करें तो यहां ़केवल अमित जोगी ने ही विधायकों की सेलरी वूद्वि का विरोध किया था. उन्होनें भी  पहले विधायकों की सेलरी में वृद्वि की मांग की परन्तु अचानक वे बदल गये. दूसरा ऐसा कोई उदाहरण सामने नहीं आया जहां माननीयों ने अपनी 'अभूतपूर्व बढ़ोत्तरीÓ का विरोध किया हो. वर्तमान दौर में तीन राज्यों ने अपनी विधानसभाओं में वेतन बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव रखा और उसे मंजूर भी कर लिया गया. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे राज्य में सुविधा और सैलरी में आमूलचूल बढ़ोत्तरी की गई है.मध्यप्रदेश में अब मुख्यमंत्री का वेतन तकरीबन दो लाख रुपये हो जाएगा. सामान्य विधायक भी अब लखपती होंगे कहने का मतलब यह कि किसी को अच्छी नौकरी नहीं मिल रही है तो वह अब चुनाव लडऩा ही बेहतर समझेगा चूंकि पूरे पांच साल और उसके बाद भी पेंशन के रूप में एक अच्छी राशि के साथ घर बैठे ही अच्छे दिन देखने को मिलेंगें, राजनीतिक और भौगोलिक नजरिए से मध्यप्रदेश-छत्तीस्रगढ़ के बीच रक्त संबन्ध है.इसी क्रम में नया बना राज्य तेलंगाना भी है.निश्चित ही इन तीनों राज्यों ने विकास के आयामों को छुआ है. खासकर आधारभूत विकास में अब इन राज्यों में सड़क, बिजली और ऐसे ढांचे ऊपरी तौर पर दिखते हैं, लेकिन इस बात पर अब भी बड़ी बहस है कि यह विकास अब गांवों के अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंचा है.इस नजरिए से देखा जाए तो राज्यों को अभी बहुत दूर की यात्रा तय करना है ऐसे में इन राज्यों के माननीयों ने ऐसा कौनसा पहाड़ उखाड़ लिया कि उनको बहुत ही अच्छे दिन की ओर ढकेल दिया.  इस साल मानसून की बेरुखी से हालात अच्छे नहीं हैं. पिछले साल भी केन्द्र सरकार ने मानसून और वैश्विक आर्थिक मंदी का हवाला देते हुए राज्य के आवंटित बजट में भारी कटौती की थी। इसका सीधा असर यह हुआ था कि राज्यों की सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं में भारी कटौती की गई थी और इस साल भी लगभग वैसी ही परिस्थिति है, मानसून साथ देगा या नहीं किसी  को नहीं पता और वैश्विक मंदी की आवाजें भी फिर से  सुनाई दे रही हैं तो क्या यह विरोधाभास नहीं है कि एक तरफ तो सामाजिक कल्याण की योजनाओं में कटौती कर दी जाए और दूसरी तरफ माननीय अपना वेतन अपने ही हाथों बढ़वा लें.व्यापार  करने वाले से कोई उसकी नैतिकता पर सवाल नहीं करता उसे पता है कि
उसका अंतिम लक्ष्य मुनाफा ही है,इन पेशों में यही एक बारीक अंतर है, अंतर की सीमा नैतिकता की रेखा ही करती है और जब मामला नेतागिरी का हो तब तो हर कोई सवाल उठाता ही है,इतिहास में इसकी सीखे हैं लेकिन कोई अपने दायरे को कितना बड़ा और क्यों करता है उसे भी सोचा जाना चाहिए.यह जरूर है कि ऐसा न तो सोच पाते हैं और न कर पाते हैं, जाहिर सी बात है कि इसमें एक अनिश्चितता है, भविष्य का डर है पर क्या यह इस डर का हल है?यदि हल मान भी लिया जाए तो क्या हम इसके बाद एक राजनैतिक शुचिता की उम्मीद कर सकते हैं. सवाल आपके परफोरमेंस का भी  है.आपने जनता के बीच लोकप्रियता बनाकर पांच वर्ष तक राजयोग प्राप्त कर लिय लेकिन क्या आप में से कितने लोग चुनाव के बाद अपने क्षेत्र में अपने  उन गरीब लोगों से मिले हैं जो आज भी बदहाली की जिंदगी जी रहे हैं उनके उत्थान के लिये क्या योजनाएं हैं आपके पास? क्या उन परिवारों के किसी एक को भी आपने इस लायक बनाया कि वह अपने पैरों पर खड़े हो सकें?ऐसे बहुत से ज्वलंत सवाल है जो आपके निर्णयों से उत्पन्न होते हैं!


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