प्रभाव के चलते पुलिस व्यवस्था का अपना दर्द!
क्या प्रभावशाली वर्ग अपने खिलाफ किसी भी कार्रवाई से बाहर होना अपना अधिकार मानता है? अपराध नियंत्रण में पुलिस की भूमिका को लेकर कुछ ऐसी ही स्थिति अब हर जगह बनती जा रही है.जहां भी कोई अपराध गठित होता है लोग यह कयास लगाना शुरू कर देते हैं कि इसका हश्र क्या होगा अर्थात इसे तुरन्त बेल मिल जायेगी या कुछ दिन जेल में रहकर छूट जायेगा-यह सब उसके प्रभाव उसके आर्थिक हालात आदि को देखकर लगाया जाता है वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग है जो बेचारे कहीं फंस गये तो कहीं के नहीं रह जाते उन्हें तो जमानतदार भी नहीं मिलते. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपराध रोकने और कानून व्यवस्था संभालने के नाम पर पुलिस की मनमानी और लापरवाही होती है, लेकिन इसका विरोध करने का सिलसिला कुछ ऐसी हद तक पहुंच रहा है कि पुलिस के लिए अपना रूटिन काम करना भी मुश्किल होता जा रहा है. देश के कुछ राज्यों में तो स्थिति इस सीमा तक बिगड़ती नजर आ रही है कि पुलिस ने कई मामलों में गैरकानूनी गतिविधियों की ओर ध्यान देना तक बंद कर दिया है, क्योंकि किसी भी प्रकार की कार्रवाई करने पर अगले ही पल ऊपर से फोन आने के साथ ही स्थानीय नेता या जनप्रतिनिधि तक आरोपी को छुड़वाने और कार्रवाई करने वाले पुलिसकर्मी को ही सजा दिलाने पुलिस थाने पहुंच जाते हैं. हाल के दिनों में राजधानी रायपुर सहित कई स्थानों पर ऐसे उदाहरण सामने आये हैं जिनमे ऐसे हस्तक्षेप हुए हैं और पुलिस के लोग कार्रवाही के शिकार बने हैं.सड़क दुर्घटनाएं रोकने के लिए सड़कों पर यातायात नियंत्रित किया जाता है.हेलमेट नहीं लगाने से पुलिस वालों का कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन जो लोग दुर्घटना में मरते हैं उनके घरवालों को तो तकलीफ होती है इसी लिये पुलिस अपना काम करती है कि जो हेलमेट न पहने उसपर कार्यवाही कर उसे लाइन पर लाये लेकिन प्राय: हर दूसरा आदमी अपना रौब गांठता है ऐसे में धूप में खड़ा गर्म होने वाला सफेद वर्दीधारी भड़के नहीं तो और क्या करेगा? आए दिन ट्रैफिक पुलिस द्वारा रोके जाने पर या चालान करने पर पुलिसवालों को धमकी देना और छोटी सी बात पर भी वर्दी उतरवा देने की धमकी देना भी अब रोजाना की घटनाओं में शामिल हो चुका है। पुलिसवाले भी अब इन घटनाओं के इतने आदि हो चुके हैं कि वे चालान भी तब ही करते हैं जब उन्हें अंदाज हो जाता है कि जिसे वे पकड़ रहे है वह दिखने में ही कमजोर और प्रभावहीन लग रहा है. जिले के पुलिस अधिकारी और उनसे ऊपर के अधिकारी भी मानते हैं कि बिना बात की राजनीतिक दखलअंदाजी से उनके काम करने के तरीके पर बहुत गलत असर पड रहा है. यही नहीं, पुलिस कर्मियों का मनोबल इतना गिर चुका है कि अपराधों को सुलझाने में उनकी रूचि भी कम होती जा रही है. पुलिसकर्मियों के हतोत्साहित होने से अब इस बात की चिंता भी बढऩे लगी है कि आने वाले दिनों में कभी भी सार्वजनिक तौर पर पुलिसकर्मियों का असंतोष सामने आ सकता है,नियमों के बावजूद मोटरसाइकिल पर तीन सवारी अब सामान्य बात हो चली है,सड़कों पर स्टंट आजकल की पीढ़ी का जन्म सिद्व अधिकार बन गया है. सड़क पर या सार्वजनिक स्थानों पर दुर्व्यवहार की शिकायत करने पर पुलिसवाले मामले का संज्ञान लेने के बजाए संबंधित लोगों को आपस में ही सुलह करने की सलाह देतेे हैं. छत्तीसगढ़ मे रौब दिखाने के लिये गाड़ी में नम्बर के साथ अपना पद नाम लिखाना, झंडा लगाना एक आम बात है. ऐसी गाड़ी को रोककर कोई्र पुलिसवाला क्यों मुसीबत बुलाना चाहेगा? कुछ ऐसे मामले भी हैं जिसमेंं पुलिस का हस्तक्षेप नहीं होने के कारण लोग अपनी सुरक्षा के लिए अपने दम पर ही निपटने की प्रवृति अपनाने लगे हैं अभी अपने पास आत्म-रक्षा के लिए हथियार रखने का चलन कुछ ही लोगों तक सीमित है, लेकिन ऐसी स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता जब लोग अमेरिका की तरह बंदूकें रखने की स्वतंत्रता की मांग करने लगें। अमेरिका में ऐसा कानून वहां के लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ हैं. राजधानी रायपुर के मौदहापारा में घटित गेंग वार ने यह भेद तो खोल दिया कि यहां अवैध हथियार और ड्रग का बिजनेस दोनों ही काम कर गया.पुलिस को मालूम था कि रायपुर में ऐसे गेंग काम कर रहे हैं जो शहर की शांति को भंग कर सकते हैं लेकिन कार्यवाही कौन करें? राजनीतिक, प्रशासनिक व प्रभावशाली पहुंच के कारण पुलिस हाथ डालकर क्यो अपना कैरियर खराब करें?
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