यूं ही दबकर रह जाती है, केन्द्र में राज्य की आवाज!
रायपुर दिनांक 19 जनवरी 2011
यूं ही दबकर रह जाती है,
केन्द्र में राज्य की आवाज!
अगर राज्य कहे कि उसकी बात केन्द्र नहीं सुनता तो इसमें विश्वास न करने वाली बात ही नहीं है चूंकि केन्द्र और राज्य में दो विपरीत विचारधारा वाली सरकार है। जब ये बैठते हैं तो वे इनकी नहीं सुनते और जब वो बैठते हैं तो यह भी उनकी नहीं सुनते-सत्ता के समीकरण में यह खेल कई वर्षो से चला आ रहा है। इस खेल का शिकार उस राज्य के नागरिक होते हैं। सरकारें बनने के बाद पूर्व सरकार के निर्णय तक को बदल देती हैं चाहे वह जनता के हित मे हो या नहीं। विपरीत विचारधारावाली सरकार और केन्द्र के बीच सामंजस्य बिठाना बहुत कठिन काम है फिर भी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने अपने व्यक्तित्व के आधार पर बहुत ताल मेल बिठाला है। उन्होनें केन्द्र से न केवल मदद हासिल की है बल्कि केन्द्र से अपने कार्यो की वाहवाही भी लूटी है इसके बावजूद केन्द्र से राज्य को जो मदद व सुविधाएं मिलनी चाहिये वह अब तक राज्य को उपलब्ध नहीं हो रही। रेलवे के लिये जो मांग राज्य से की जाती है उसमें से बहुत कम ही स्वीकार की जाती है। पर्यावरण मंत्रालय से हरी झंडी नहीं मिलने के कारण कई सिंचाई व विद्युत परियोजनाएं अटकी पड़ी है। सड़क परिवहन विभाग कई राज्यों में सड़क को विदेशी पेटर्न पर विकसित कर रहा है किंतु छत्तीसगढ इस मामले में अभी भी पिछड़ा है। कृषि से संबन्धित कई योजनाओं पर भी केन्द्र की मदद न के बराबर है। केन्द्र से जो मदद अब तक मिलनी चाहिये थी उसमें से अधिकांश का कोई अता पता नहीं है। राज्य सरकार को विकास कार्यो के लिये अब तक इतना पैसा मिल जाना चाहिये था कि वह एक लाख तीन हजार पांच सौ करोड़ रूपये का काम कर सके किंतु उसने इस ओर ध्यान ही नही दिया। मुख्यमंत्री दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिहं से नौ महीने मे डेढ़ दर्जन बार मिल चुके हैं लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा उन्हें मिला हो यह नहीं कहा जा सकता। राज्य का विकास होना है उसमें केन्द्र की अहम भूमिका है। वैसे छत्तीसगढ स्वंय इस मामले में सक्षम है मगर राज्य के उत्पादन का बहुत बड़ा हिस्सा केन्द्र के खाते में चला जाता है। केन्द्र की पहली प्राथमिकता अपनी पार्टी और सहयोगी पार्टी की राज्य सरकारों को मदद पहुंचाने की रहती है। विपरीत विचारधारा वाली सरकारों को मदद देने का मामला बचा कुचा जो रह जाता है, उसी को देने का रहता है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि छत्तीसगढ़ की आवाज को यहां मौजूद कां्रग्रेस के शक्तिशाली नेता भी दिल्ल्री में बुलंद नहीं करते, अगर करते भी है तो उसकी मानिटरिंग नहीं होती और मामला यूं ही दबा रह जाता है। पिछले कई सालों से केन्द्रीय मंत्रिमंडल में किसी निवाॢचत प्रतिनिधि को अंचल से स्थान भी नहीं मिला है, इसा बार भी झुनझुना दिखा दिया गया। अक्सर कांगे्रस के लोग केन्द्र में अपने आकाओं के पास राज्य की समस्या को ले जाने की जगह अपनी व्यक्तिगत समस्या या फिर पार्टी के अदंरूनी झगड़ो को लेकर ही पहुंचते हैं। आम जनता से जुडी समस्या को पुख्ता तौर पर इन वर्षो में कभी उठाया हो इसकी जानकारी नहीं।
यूं ही दबकर रह जाती है,
केन्द्र में राज्य की आवाज!
अगर राज्य कहे कि उसकी बात केन्द्र नहीं सुनता तो इसमें विश्वास न करने वाली बात ही नहीं है चूंकि केन्द्र और राज्य में दो विपरीत विचारधारा वाली सरकार है। जब ये बैठते हैं तो वे इनकी नहीं सुनते और जब वो बैठते हैं तो यह भी उनकी नहीं सुनते-सत्ता के समीकरण में यह खेल कई वर्षो से चला आ रहा है। इस खेल का शिकार उस राज्य के नागरिक होते हैं। सरकारें बनने के बाद पूर्व सरकार के निर्णय तक को बदल देती हैं चाहे वह जनता के हित मे हो या नहीं। विपरीत विचारधारावाली सरकार और केन्द्र के बीच सामंजस्य बिठाना बहुत कठिन काम है फिर भी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने अपने व्यक्तित्व के आधार पर बहुत ताल मेल बिठाला है। उन्होनें केन्द्र से न केवल मदद हासिल की है बल्कि केन्द्र से अपने कार्यो की वाहवाही भी लूटी है इसके बावजूद केन्द्र से राज्य को जो मदद व सुविधाएं मिलनी चाहिये वह अब तक राज्य को उपलब्ध नहीं हो रही। रेलवे के लिये जो मांग राज्य से की जाती है उसमें से बहुत कम ही स्वीकार की जाती है। पर्यावरण मंत्रालय से हरी झंडी नहीं मिलने के कारण कई सिंचाई व विद्युत परियोजनाएं अटकी पड़ी है। सड़क परिवहन विभाग कई राज्यों में सड़क को विदेशी पेटर्न पर विकसित कर रहा है किंतु छत्तीसगढ इस मामले में अभी भी पिछड़ा है। कृषि से संबन्धित कई योजनाओं पर भी केन्द्र की मदद न के बराबर है। केन्द्र से जो मदद अब तक मिलनी चाहिये थी उसमें से अधिकांश का कोई अता पता नहीं है। राज्य सरकार को विकास कार्यो के लिये अब तक इतना पैसा मिल जाना चाहिये था कि वह एक लाख तीन हजार पांच सौ करोड़ रूपये का काम कर सके किंतु उसने इस ओर ध्यान ही नही दिया। मुख्यमंत्री दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिहं से नौ महीने मे डेढ़ दर्जन बार मिल चुके हैं लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा उन्हें मिला हो यह नहीं कहा जा सकता। राज्य का विकास होना है उसमें केन्द्र की अहम भूमिका है। वैसे छत्तीसगढ स्वंय इस मामले में सक्षम है मगर राज्य के उत्पादन का बहुत बड़ा हिस्सा केन्द्र के खाते में चला जाता है। केन्द्र की पहली प्राथमिकता अपनी पार्टी और सहयोगी पार्टी की राज्य सरकारों को मदद पहुंचाने की रहती है। विपरीत विचारधारा वाली सरकारों को मदद देने का मामला बचा कुचा जो रह जाता है, उसी को देने का रहता है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि छत्तीसगढ़ की आवाज को यहां मौजूद कां्रग्रेस के शक्तिशाली नेता भी दिल्ल्री में बुलंद नहीं करते, अगर करते भी है तो उसकी मानिटरिंग नहीं होती और मामला यूं ही दबा रह जाता है। पिछले कई सालों से केन्द्रीय मंत्रिमंडल में किसी निवाॢचत प्रतिनिधि को अंचल से स्थान भी नहीं मिला है, इसा बार भी झुनझुना दिखा दिया गया। अक्सर कांगे्रस के लोग केन्द्र में अपने आकाओं के पास राज्य की समस्या को ले जाने की जगह अपनी व्यक्तिगत समस्या या फिर पार्टी के अदंरूनी झगड़ो को लेकर ही पहुंचते हैं। आम जनता से जुडी समस्या को पुख्ता तौर पर इन वर्षो में कभी उठाया हो इसकी जानकारी नहीं।
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