ेआखिर नक्सलियों को गोला बारूद और रसद कोैन पहुंचा रहा है?





बारूद के ढेर पर है बस्तर -यहां से उठने वाली चीख पुकार और उसके बाद शांत होती जिंदगी यूं कब तक हमे सुननी पड़ेगी?  घटना के बाद निंदा,फिर मुआवजा तथा जवानों की तैनाती क्या यही इस समस्या का हल है? नक्सलियों द्वारा बिछाए गए बारूदी सुरंग की चपेट में आने से पिछले सप्ताह एक और आदिवासी महिला की मौत हो गई उससे एक दिन पहले प्रेशर बम की चपेट में आने से तीसरी कक्षा में पढऩे वाली छात्रा की भी मौत हो गई यह इतना वीभत्स था कि सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो गये और जिसने इस भयानक हादसे को देखा होगा वह तो  पता नहीं किस तरह इसे देखने के बाद अपनी शेष जिंदगी काटेगा. सुकमा के भेज्जी थाना क्षेत्र म गोरखा गांव के कोसिपारा की मुचाकी हिड़मे महुआ बीनने जंगल की ओर गई थी।तभी मुचाकी का पैर नक्सलियों की ओर से जवानों को निशाना बनाने के लिए लगाए गए प्रेशर बम पर पड़ते ही उसके चिथड़े उड़ गये.इतने समय के दौरान ऐसा लगता है कि बस्तर के चप्पे चप्पे पर नक्सलियों ने मौत बिछा रखी है जिसमें हमारे जवान फंसते हैं तो कभी बेक सूर ग्रामीण तो कभी वे खुद भी अंजाने में फंस जाते हैैं तो इसमें भी कोई अतिशयोक्ती नहीं होनी चाहिये. इस घटना के पूर्व  मुरलीगुड़ा के पास जिस प्रेशर बम की चपेट में आने से  आठ साल की आदिवासी स्कूली छात्रा मुचाकी अनीता की मौत हुई थी। वह 5 किलो का था.विशेषज्ञ बताते हैं इतनी मात्रा के विस्फोटक से एक बड़ी गाड़ी को आसानी से उड़ाया जा सकता है. गौरतलब है कि इसी जगह पर बारूदी सुरंग बिछी थी जिसकी  चपेट में  आने से सीआरपीएफ का एक जवान भी शहीद हो गया था और एक डिप्टी कमांडेंट कोमा में चला गया. सवाल  यह भी उठता है कि बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों तक यह विस्फोटक कैसे, किसके माध्यम से पहुंच रहे हैंॅ. इतनी पुलिस की नजर बचाकर बीहड़ों में विस्फोटकों का पहुंच जाना, भारी संख्या में मौजूद नक्सलियों के लिये खाने पीने की सारी सुविधांए  पहुेचना यह सब ऐसे सवाल हैैं जो आज तक इतना पैसा खर्च करने के बाद भी बना हुआ है. हम आदमी को सरकार से पूछने का यह अधिकार है कि हमारी जेब से पैसा निकालकर कब तक यूं खून का खेल चाहे वह नक्सलियों का हो या हमारे जवानों का खेला जाता रहेगा? सरकार अगर हमले के बाद निंदा करके या कुछ ओैर  फोर्स बढा़कर इस समस्या को  यूं ही ठण्डे बस्ते में डालती रही तो ऐसा लगता है कि इस समस्या का कोई हल ही नहीं है.इस बात की खुशी है कि सरकार ने इस घटना के बाद कोई देर न करते हुए पीडि़तोंं को पांच पांच  लाख रुपए का मुआवजा देने की घोषणा की लेकिन  सवाल फिर  भी बना हुआ है कि आखिर  ऐसा हम कब तक करते रहेंगे. वे मारते रहेंगे, हम मरते रहेंगे और उनके भी कई मारे जायेेंगे-यह सब आखिर  कब तक? इसे एक इमरजेसंी  प्राब्लम की तरह क्यों नहीं देखा जा रहा?हम मानते हैं कि नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल करने से बहुत से निर्दोष ग्रामीणों का भी अंत होगा लेकिन अभी  तो तुला पर दोनों ही एक समान मौत को गले लगा रहे हैं- ऐसे में सिर्फ यूं खामोश बैठकर तमाशा देखने  से अच्छा यही हैं कि एक ज्वाइंट अभियान  सभी सीमावर्ती राज्यों की बैठक बुलाकर बनाई जाये जिसमें नक्सलियों को पहुंचने वाली रसद  गोला बारूद को सीमा के आसपास ही रोकने व लाने ले जाने वालों को पहले बंद करने की योजना बनाई जाये साथ ही सीमा को चारों तरफ से कुछ समय के लिये सील किया  जाये ताकि बाहर किसी  भी तरह से आने वाले  गोला बारूद और रसद को छिपे नक्सलियों तक पहुंचने न दिया जाये तभी यह संभव होगा कि बीहड़ में छिपे परेशान होकर बाहर निकलेंगे-प्रक्रिया ठीक उसी तरह है जैसे किसी बिल में घुसे सांप को धुआं करके बिल से निकालना. असल प्रशन आज यह नहीं कि गोली कौन चला रहा है और कौन किसे मार रहा है- सवाल तो यह है कि गोली चलाने वालों को जिंदा कौन रख रहा है और कौन उन्हें बारूद और रसद पहुंचा रहा है? एक  बार हम पुलिस के इस  दावे को मान भी ले कि उसके कथित दबाव के आगे नक्सली भारीी तादात में सरेन्डर कर रहे हैं तो फिर यह सवाल उठता है कि उसके बाद भी  उसपर घेर घेरकर हमले कैसे हो रहे हैं? इससे तो यह साबित हो रहा है कि नक्सलियों की तादात पुलिस फार्स से कई गुना ज्यादा हें और  उनके पास कई किस्म के घातक हथियार भी है यहां तक कि विदेशी राष्ट्रों से पहुंचने वाले हथियार भी! सरकार को चाहिये कि वह प्रदेश में सुख शांति और विकास के लिये बस्तर को केन्द्र और आसपास के राज्या की मदद से एक ही बार में समस्या के हल करने की कोशिश करें!



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