पीड़ित को न्याय में गवाह की मौत कितनी बाधक?- साक्षियों की मृत्यु ने कई मामलों को उलझाया!
गवाह की मौत मुकदमा खत्म? कानून की किताब में यह लिखा है या नहीं हम नहीं जानते लेकिन एक सामान्य नागरिक के नाते यह एक अनसुलझा सवाल है की क्या गवाह की मौत के बाद पीड़ित को न्याय मिल सकेगा या नहीं! दो तीन गवाहों में से एक की मौत के बाद तो यह माना जा सकता है कि पीड़ित को न्याय मिलने की संभावना है लेकिन जब सारे साक्ष्य व गवाह ही खत्म हो जाये तो इसका विकल्प क्या है? ऐसा प्रावधान जरूर है कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर अपराधी को सजा दी जाये लेकिन सवाल यह भी है की क्या न्यायालयों मेंं लंबित मुकदमें गवाह बिना चल ही नहीं सकते? इस स्थिति के चलते कई पीड़ितों को न्याय नहीं मिलता? कानून में यह प्रावधान तो है कि मृतक के रिश्तेदार की गवाही को अदालत मान्य कर सकती है लेकिन कई बार रिश्तेदारों की गवाही भी काम नहीं आती. गवाहों को किसी प्रकार की सुरक्षा नहीं मिलती.कुछ खास मामलों में ही सुरक्षा दी जाती है. सही भी है कितने लोगों को सुरक्षा देंगे? हमारे देश का कानून साक्ष्य पर आधारित है, इसलिए भी यह सवाल उठ खड़ा है कि देश में एक बड़ा घोटाला हुआ जिसमें एक-एक कर कई साक्ष्यों ने मुकदमा शुरू होने के पूर्व ही दम तोड़ दिया.कानून अनुसार जब साक्ष्य ही मौजूद नहीं है तो मुकदमा काहे का? ऐसे में पीड़ित क्या न्याय प्राप्त कर सकेगा? दूसरा महत्वपूर्ण मामला एक हाई प्रोफाइल संत का है जो पिछले कुछ सालों से अपने ऊपर लगाये गये दुष्कर्म का मुकदमा झेल रहा है. इस मामले के भी कई गवाहों की हत्या हो गई है. साक्ष्य के अभाव में इस मामले में पीड़ितों को न्याय मिलेगा या नहीं यह अब संदिग्ध होता जा रहा है.घटनाओंं पर पूर्ण निगाह रखने वाले विशेषज्ञ भी सोचने के लिये मजबूर है कि आखिर ऐसी स्थिति में क्या होगा? कानून के विशेषज्ञों के पास ऐसी स्थिति का जरूर कोई तोड़ हो सकता है लेकिन ऐसी स्थिति पैदा होने के कारण हमारी न्याय व्यवस्था, जिस पर अभी भी लोगों का विश्वास है पर से विश्वास उठने की स्थिति भी पैदा हो रही है. वैसे कोई घटना होने के बाद गवाह या प्रत्यक्ष साक्षी के बयान को मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराने का प्रावधान है लेकिन सभी मामलों में तो यह नहीं हो पाता. दूसरी बात यह कि मजिस्ट्रेट के समक्ष अगर बयान दर्ज हो भी जाता है तो उस बयान को कोर्ट कितना मान्य करता है? अपराध जगत में नई संस्कृति विकासित हो चुकी है.'सफेदपोश रहो, जुर्म करों, गवाह को उड़ा दो मामला अपने आप खत्म.Ó अपराधी फिर से सफेद पोश होकर अपराध का सिलसिला शुरू करता है-कई अपराधी तो अपराध करने के बाद सारे सबूत मिटाकर चलते हैं-रायपुर के मिशन नन से दुष्कर्म मामले में कोई साक्ष्य ही नहीं मिला ऐसे में किसी को पकड़कर न्यायालय में पेश भी किया जाता है तो क्या सबूत? पीड़ित को न्याय मिलना ही मुश्किल है-ऐसे बहुत से सवालों से
आज हमारा कानून गुजर रहा है कई कठिनाइयां बीच-बीच में संशोधनों से हल हो जाती है लेकिन हाल ही मामलो में गवाहों की मौत और हत्या ने संपूर्ण न्याय- व्यवस्था को चुनौती दे डाली है.
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