खिलाडिय़ों का खून और पसीना!
रायपुर दिनांक 8 अक्टूबर
स्वर्ण के एक एक हिस्से पर लगा हैं
खिलाडिय़ों का खून और पसीना!
जिस स्वर्ण पदक को जीतकर आज सारा देश गौरवान्वित महसूस कर रहा है। उसे जीतने के लिये हमारे खिलाडिय़ों को कितने पापड़ बेलने पड़े हैं। यह जब उनकी जुबानी बाहर आती है तो हमारी व्यवस्था पर गुस्सा आता है कि वह देश में खिलाडिय़ों को तैयार करने के नाम पर उनकी पूरी उपेक्षा ही कर रही है। जो कुछ गौरव हासिल किया जा रहा है, उसे खिलाडी अपनी स्वयं की प्रतिभा,मेहनत और खून- पसीना एक कर से अर्जित कर रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों की भारोत्तोलन प्रतियोगिता में देश के लिए पहला स्वर्ण पदक जीतने वाली रेणुबाला चानू को बुधवार रात पदक जीतने के बाद वापस खेलगांव जाने के लिए करीब पांच घंटे आटोरिक्शा का इंतजार करना पड़ा। वह अपने परिवार के साथ थीं। यह तो गनीमत थी कि उसे आटो मिल गया। वरन् देश का यह गौरव कहां भटकती रहती इसका अंदाज व्यवस्था करने वाले भी नहीं लगा पाते। अब अपनी खाल बचाने के लिये आयोजन समिति कह रही है कि रेणु ने स्वयं ही आटोरिक्शा से खेलगांव जाने का निर्णय लिया था। गोल्ड मेडल जीतने के बाद रेणु के साथ जहां यह व्यवहार था तो दूसरी ओर शूटिंग में दो स्वर्ण जीतकर भारत को गौरवान्चित करने वाली अनीसा सईद ने जो रहस्योद्घाटन किया, वह देश में खेल और खिलाडिय़ों, दोनों की दशा को दर्शाता है। अनीसा को इस मुकाम तक पहुंचने के लिये कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अनीसा सईद रेलवे की नौकरी करती है और उसे रेलवे ने पन्द्रह महीने से वेतन नहीं दिया। जबकि उसके पति का कहना है कि अनीसा की पिस्तल की पिन को ठीक कराने के लिये उनके पास पैसे नहीं थे। एक निजी कंपनी की मदद से उसकी पिस्टल ठीक कराई। दिलचस्प तथ्य यह है कि कामनवेल्थ गेम्स मे अधिकांश पदक विजेता अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा के बल पर पदक हासिल करने में कामयाब हुए हैं। भारतीय निशानेबाज गुरप्रीत सिंह और विजय कुमार ने 25 मीटर पिस्टल पेयर्स में सोने का तमगा अपने नाम कर लिया। राष्ट्रमंडल खेलों में ढेर सारे पदक लेकर हम गौरवान्वित हैं , लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिये कि- अगर कम मेहनत और सुविधाओं के अभाव में हमारे खिलाड़ी इतना अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। अगर उन्हें पर्याप्त सुविधाएं सुलभ कराई जाये तो देश के खिलाड़ी ओलंपिक प्रतियोगिताओं में चीन और जापान से काफी आगे निकल सकते हैं। खिलाडिय़ों को प्रोत्साहित करने उन्हें सुविधाएं सुलभ करने का दायित्व राज्य सरकारों का है। स्कूल से ही बच्चों में खेलों के प्रति रूचि बढ़ाई जाये, तो कई छिपी प्रतिभाएं बाहर आ सकती हैं। मगर कई राज्यों में तो स्थिति यह है कि बच्चों को खेलने के लिये मैदान नहीं है । जिम्रेशियम की व्यवस्था नहीं है, कोच नहीं है, खेल के लियेजरूरी साधन नहीं है। इन हालातों में भी अगर देश से प्रतिभाएं उभरकर सामने आती हैं तो हमें अपने पर ही गर्व करना चाहिये कि- हम हर परिस्थिति में ऊंचा उठने की ताकत रखते हैं।
स्वर्ण के एक एक हिस्से पर लगा हैं
खिलाडिय़ों का खून और पसीना!
जिस स्वर्ण पदक को जीतकर आज सारा देश गौरवान्वित महसूस कर रहा है। उसे जीतने के लिये हमारे खिलाडिय़ों को कितने पापड़ बेलने पड़े हैं। यह जब उनकी जुबानी बाहर आती है तो हमारी व्यवस्था पर गुस्सा आता है कि वह देश में खिलाडिय़ों को तैयार करने के नाम पर उनकी पूरी उपेक्षा ही कर रही है। जो कुछ गौरव हासिल किया जा रहा है, उसे खिलाडी अपनी स्वयं की प्रतिभा,मेहनत और खून- पसीना एक कर से अर्जित कर रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों की भारोत्तोलन प्रतियोगिता में देश के लिए पहला स्वर्ण पदक जीतने वाली रेणुबाला चानू को बुधवार रात पदक जीतने के बाद वापस खेलगांव जाने के लिए करीब पांच घंटे आटोरिक्शा का इंतजार करना पड़ा। वह अपने परिवार के साथ थीं। यह तो गनीमत थी कि उसे आटो मिल गया। वरन् देश का यह गौरव कहां भटकती रहती इसका अंदाज व्यवस्था करने वाले भी नहीं लगा पाते। अब अपनी खाल बचाने के लिये आयोजन समिति कह रही है कि रेणु ने स्वयं ही आटोरिक्शा से खेलगांव जाने का निर्णय लिया था। गोल्ड मेडल जीतने के बाद रेणु के साथ जहां यह व्यवहार था तो दूसरी ओर शूटिंग में दो स्वर्ण जीतकर भारत को गौरवान्चित करने वाली अनीसा सईद ने जो रहस्योद्घाटन किया, वह देश में खेल और खिलाडिय़ों, दोनों की दशा को दर्शाता है। अनीसा को इस मुकाम तक पहुंचने के लिये कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अनीसा सईद रेलवे की नौकरी करती है और उसे रेलवे ने पन्द्रह महीने से वेतन नहीं दिया। जबकि उसके पति का कहना है कि अनीसा की पिस्तल की पिन को ठीक कराने के लिये उनके पास पैसे नहीं थे। एक निजी कंपनी की मदद से उसकी पिस्टल ठीक कराई। दिलचस्प तथ्य यह है कि कामनवेल्थ गेम्स मे अधिकांश पदक विजेता अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा के बल पर पदक हासिल करने में कामयाब हुए हैं। भारतीय निशानेबाज गुरप्रीत सिंह और विजय कुमार ने 25 मीटर पिस्टल पेयर्स में सोने का तमगा अपने नाम कर लिया। राष्ट्रमंडल खेलों में ढेर सारे पदक लेकर हम गौरवान्वित हैं , लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिये कि- अगर कम मेहनत और सुविधाओं के अभाव में हमारे खिलाड़ी इतना अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। अगर उन्हें पर्याप्त सुविधाएं सुलभ कराई जाये तो देश के खिलाड़ी ओलंपिक प्रतियोगिताओं में चीन और जापान से काफी आगे निकल सकते हैं। खिलाडिय़ों को प्रोत्साहित करने उन्हें सुविधाएं सुलभ करने का दायित्व राज्य सरकारों का है। स्कूल से ही बच्चों में खेलों के प्रति रूचि बढ़ाई जाये, तो कई छिपी प्रतिभाएं बाहर आ सकती हैं। मगर कई राज्यों में तो स्थिति यह है कि बच्चों को खेलने के लिये मैदान नहीं है । जिम्रेशियम की व्यवस्था नहीं है, कोच नहीं है, खेल के लियेजरूरी साधन नहीं है। इन हालातों में भी अगर देश से प्रतिभाएं उभरकर सामने आती हैं तो हमें अपने पर ही गर्व करना चाहिये कि- हम हर परिस्थिति में ऊंचा उठने की ताकत रखते हैं।
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