दंडधारी, चौकीदार, दरोगा से 'पुुलिस तक का सफर कितना सफल?
प्राचीन भारत का स्थानीय शासन मुख्यत: ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था गाँव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित किए जाते थे. इसकी सहायता और निर्देशन ग्राम के वयोवृद्ध करते थे. पुलिस व्यवस्था के विकासक्रम में उस काल के दंडधारी को वर्तमान काल के पुलिस जन के समकक्ष माना जा सकता है यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे वरन् इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने में से चुन लेते थे. ग्रामिणों के ऊपर 5-10 गाँवों की व्यवस्था के लिए गोप एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए स्थानिक नामक अधिकारी होते थे.इन निर्वाचित ग्रामीण अधिकारियों द्वारा अपराधों की रोकथाम का कार्य सुचारु रूप से होता था और उनके संरक्षण में जनता अपने व्यापार उद्योग-निर्भय होकर करती थी.हिन्दू काल के बाद सल्तनत और मुगल काल में भी ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की परंपरा अक्षुण्ण रही.मुगल काल में ग्राम के मुखिया मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे और निर्माण चौकीदारों की सहायता से ग्राम में शांति की व्यवस्था स्थापित की जाती थी. चौकीदार दो श्रेणी में विभक्त थे- (1) उच्च, (2) साधारण उच्च श्रेणी के चौकीदार.वे अपराध और अपराधियों के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त करते थे शासन की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों की देखभाल फौजदार और नागरिक क्षेत्रों की देखभाल कोतवाल के द्वारा की जाती थी.मुगलों के पतन के उपरांत भी ग्रामीण शासन की परंपरा चलती रही. सन् 1765 में जब अंग्रेजों ने बंगाल की दीवानी हथिया ली तब जनता का दायित्व उनपर आया.वारेन हेस्टिंग्ज़ ने सन् 1781 तक फौजदारों और ग्रामीण पुलिस की सहायता से पुलिस शासन की रूपरेखा बनाने के प्रयोग किए और अंत में उन्हें सफल पाया लार्ड कार्नवालिस का यह विश्वास था कि अपराधों की रोकथाम के निमित्त एक वेतन भोगी एवं स्थायी पुलिस दल की स्थापना आवश्यक है इसके निमित्त जनपदीय मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया गया कि प्रत्येक जनपद को अनेक पुलिसक्षेत्रों में विभक्त किया जाए और प्रत्येक पुलिसक्षेत्र दारोगा नामक अधिकारी के निरीक्षण में सौंपा जाय इस प्रकार दारोगा का उद्भव हुआ बाद में ग्रामीण चौकीदारों को भी दारोगा के अधिकार में दे दिया गया .इस प्रकार मूलत: वर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था. देश में अपराध निरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है.थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है.जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है.यह पुलिस व्यवस्था इतना विशाल रूप धारण कर चुकी है कि जनता पर यह एक तरह से हावी है. इन्हें प्रदत्त अधिकार अपराध को तो रेोकने में विशिष्ट भूमिका अदा करते हैं लेकिन लोगों पर कहर ढोने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते. भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि पुलिस बेरहम नहीं हो सकती वे यह भी कहते हैं कि वह सभ्य बने और धैर्य रखे. यह सीख तो पुलिस को उसी समय दी जाती है जब वह ट्रेनिगं लेकर निकलते हैं फिर भी वह ऐसे कैसे हो जाती है कि किसी सभ्य और कानून प्रिय व्यक्ति की बात को भी शंांत होकर नहीं सुन सकती और अपना आपा खो बैठती हैं. कई निर्दोष व्यक्तियों को भी कतिपय मामलों में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है.राजनाथ सिंह ने अभी क ल ही रैपिड एक्शन फोर्स (आरएएफ) के रजत जयंती समारोह में मुख्य आथित्य ग्रहण किया और जवानों को संबोधित किया. उनका कहना था कि 21वीं सदी की पुलिस ''बेरहम नहीं हो सकती, बल्कि उसे ''सभ्य बनना होगा और पुलिसकर्मियों से कहा कि दंगे और प्रदर्शनों जैसे चुनौतिपूर्ण हालात से निपटते वक्त धैर्य रखें. मंत्री ने केन्द्र और राज्य दोनों पुलिस बलों से अपील की कि प्रदर्शन या दंगे जैसी स्थिति में हंगामा करने वाली भीड़ को ''नियंत्रित करने और उनका ध्यान भटकाने
के लिए समुचित नयी तकनीक और मनोवैज्ञानिक समाधान का प्रयोग करें.आजादी के बाद से हमारे नेता कितनी ही बार ऐसी सीख खाखी वर्दीधरियों को दे चुके है लेकिन कितना असर उनपर हुआ है यह सोचने का विषय है.जवानों को कभी कभी तो दिन रात काम करना पड़ता है.छुट्टी के मामले में कइयों को आत्महत्या जैसे कदम उठाने पड़े हैं. ऐसे में वह अपना सारा तनाव हाथ में मिलने वाले उस व्यक्ति पर निकाल देता है जो कोई समस्या लेकर पहुंचता है.जमीनी स्तर पर काम करने वाले जवान दंगा और प्रदर्शन कर रही भीड़ से किस प्रकार निपटती है यह किसी को बताने की जरूरत नहीं क्योंकि हाल की कतिपय घटनाएं इसकी गवाह है. असल बात तो यह है कि हमारी पुलिस व्यवस्था अभी भी अंग्रेजो के जमाने से चली आ रही व्यवस्था का रूप धरे बैठी है उसमें परिवर्तन के नाम पर अब तक जितना काम होना था वह सिर्फ कागजों पर दौड़ती रही है और दौड़ रही है. थानों में फोर्स की कमी है- इतने बेरोजगार और नौकरी चाहने वाले घूम रहे है जो पुलिस की नौकरी चाहते है क्यों नहीं उनकी भरती की जाती? सिर्फ अफसरों के भरोसे अपराधों पर काबू नहीं पाया जा सकता. पुलिस को संवेदनशील व आधुनिक भी बनाना होगा. हम मानते है कि पुलिस बलों को सख्ती की जरूरत होती है, लेकिन यह सख्ती उतनी भी तो नहीं कि वह व्यक्ति न्याय के कटघरें में पहुंचने से पहले ही खाखी के हाथो मसल दिया जाये.
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