आखिर हत्यारें कौन? क्यों मिली निर्दोष को सजा


यह विचित्र बात है कि नौ साल बाद भी हमारे देश की जांच एजेंसिया यह पता नहीं लगा पाई कि बाहर से  बंद बंगले में रह रहे चार लोगों के बीच रह रहे दो व्यक्तियों की सनसनीखेज ढंग से की गई हत्या का  असली मुलजिम कौन हैं.सवाल यह उठता है कि क्या यह मामला भी अब उन पुराने मामलों की तरह गुमनामी में चला जायेगा जिसमें वास्तविक हत्यारों का पता लगाने या साक्ष्य प्रस्तुत करने में एजेंसियां विफल हो गई. कई मामलों में तो वास्तविक हत्यारें छुट्टा घूम रहे होते हैं जबकि डमी या निर्दोष पेश किये गये साक्ष्यों के आधार पर सजा भुगत रहे होते हैं.आरूषी-हेमलाल हत्याकांड में निचली अदालत ने आरूषी के माता पिता को उम्र कैद की सजा सुनाई थी जिसके विरूद्व उनके वकीलों ने हाईकोर्ट  में अपील की और हाईकोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में उन्हें बरी कर दिया. इस दौरान जो मानसिक व शारीरिक यातानांए इस परिवार को झेलनी पड़ी उसका जिम्मेदार कौन है? दूसरा प्रशन यह कि अगर आरूषी और हेमलाल की हत्या इन दोनों ने नहीं की तो किसने की? यह अब कभी पता चल पायेगा? कई ऐसे प्रश्न इस फैसले के बाद लोगों के दिमाग में कौद रहे हैं और पुलिस की जांच प्रणाली पर भी उंगली उठने लगी है. कि ऐसे तो किसी भी मामले में अपना शौर्य प्रदर्शित करने के लिये पुलिस किसी को भी मुलजिम बनाकर पेश कर देगी और झूठे साक्ष्यों की बदौलत जेल की हवा खायेगा या फांसी पर चढ़ जायेगा. हकीकत यह है कि न्यायालय के इस फैसले के बाद कानून विदों और कानून तथा व्यवस्था सम्हालने वालों के समक्ष एक नई समस्या उत्पन्न हो गई है कि मुलजिम साबित करने के लिये साक्ष्य कहां से जुटाये.जब न्यायालय से एक व्यक्ति या कई व्यक्ति निर्दोष बरी कर दिये जाता है तो उसे इस अवधि में जो मानसिक व शारीरिक यातनाएं झेलनी पड़ी उसके  लिये कौन जिम्मेदार है? उसे तो मुलजिम बना दिया गया.वह समाज के सामने मुंह दिखाने के लायक नहीं बचा. अगर बरी नहीं होता है तो भी उसे किसी न किसी ढंग से पेश साक्ष्य के आधार पर सजा हो जाती है दोनों परिस्थितियों में  एक व्यक्ति किसी न किसी चाहे वह सराकारी जांच एजेंसी हो या और कोई प्रताडना का तो शिकार होता ही है क्या ऐसे लोगों के प्रति कोई निर्णय हमारी व्यवस्था की तरह से होगा? चूंकि यह प्रताडऩा गिरफतार या बंदी बनाये गये उस एक व्यक्ति की अकेले न होकर पूरे परिवार की होती है तथा इसकी सजा पूरा परिवार भुगतता है. निर्दोष बरी होने का मतलब यही है कि उसने कोई अपराध किया ही नहीं और उसे जबरन यातना दी गई दससे न केवल उसका नुकसान हुआ बल्कि उसके परिवार का भी नुकसान हुआ. क्या ऐसे में इसकी जबाबदेही भी किसी पर तय नहीं की जानी चाहिये? या तो ऐसी प्रताडऩा देने वालों को मामला सिद्व न कर पाने के लिये सजा का प्रावधान हो या फिर उप्हें जेल के सीकचों के पीछे भेजा जाये. हमारी न्याय व्यवस्था में देरी भी एक समस्या है. 
न्याय मिलने में हो रही देरी के बारे में गहन सोच-विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि समय पर होनेवाले, सही और सधे हुए न्यायिक फैसले न्यायपालिका में आम जन के भरोसे की पहली शर्त है.स्वतंत्र और समर्थ न्याय-प्रणाली किसी भी सभ्य समाज का आधार है. इसके बिना लोकतंत्र की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है. न्याय पाने का अधिकार महत्वपूर्ण मानवाधिकारों में एक है. हमारे संविधान में भी इसे मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है. परंतु, लचर और लापरवाह दशा और दिशा के कारण भारतीय न्याय व्यवस्था में तमाम खामियां घर कर गयी हैं. भ्रष्टाचार, कानूनी पेचीदगियां, महंगे शुल्क जैसी समस्याएं न्याय पाने की राह में बड़ी बाधाएं बनी हुई हैं. लेकिन, सबसे अहम परेशानी मामलों के निपटारे में होनेवाली देरी ही है.देर से मिला न्याय असल में न्याय देने से इनकार के समान है. इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर संसद से लेकर गांवों-कस्बों के नुक्कड़ों-चौराहों पर बहसें होती रहती हैं.देश की निचली से लेकर सबसे बड़ी अदालत तक में कुल तीन करोड़ से अधिक मामले विचाराधीन हैं, जिनमें करीब 25 फीसदी पांच वर्षो से अधिक समय से लंबित हैं.निचली अदालतों में करीब ढाई करोड़ और उच्च न्यायालयों में 44 लाख से अधिक मामले लंबित है. न्यायपालिका की यही गति रही, तो 2040 तक लंबित मामलों की कुल संख्या 15 करोड़ हो जाने का अनुमान है. भारतीय न्यायपालिका की न्यायसंगत आलोचना विवादो के निपटारे में असामान्य देरी के लिए, लंबित पडे मामलो के लिए साथ ही साथ न्यायिक प्रक्रिया के गंदे या दोषपूर्ण प्रबंधन के लिए की जाती है, जिसका विनाशकारी परिणाम विशेष रूप से समाज के कमजोर वर्गों को भुगतना पड़ता है






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