ढोल बजा नहीं,शोर गूंजने लगा!
ढोल बजा नहीं,शोर गूंजने लगा!
जी हां कुछ ऐसी ही स्थिति है गुजरात चुनाव की.चुनाव आयोग ने अभी गुजरात में चुनाव तिथियों का ऐलान नहीं किया है किन्तु इस बीच गुजरात को फतह करने जोड़तोड़ शुरू हो गई है. जनता जिसे सबकुछ करना है वह शांत व मूक दर्शक है लेकिन सत्ता पर काबिज होने के लिये बेताब रणबाकुरे कोइ्र्र भी खेल इस दौरान खेलने बेताब हैं. यह कोशिश वास्तव में दिलचस्प है. गुजरात की सत्ता से कई सालों से बेदखल कांग्रेस को जहां इस बार गुजरात से काफी उम्मीद है वहीं उसके शुरूआती दाव पैच भाजपा को बैचेन कर रही है. प्रधानमंत्री के गृह राज्य में होने वाले इस चुनाव में उनकी दिलचस्पी स्वाभाविक है वहंी उनकी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों की प्रतिष्ठा भी दाव पर लगी हुई है.इससे पूर्व यूपी में चुनाव हो चुका है जहां कांग्रेस व समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा था. बात यहां कुछ उलटी ही है. वह समय लहर का था लेकिन अब काम देखा जाने वाला भी हो सकता है.वोटरों को रिझाने सारे प्रयास जहां तेज हैं वहीं खीचतान का सिलसिला भी जारी है. मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से गुजरात के व्यापारियों को घाटा उठाना पड़ा है लिहाजा, उनका रुझान भी भाजपा से हटकर कांग्रेस की तरफ हो सकता है.राज्य सभा के लिये अहमद पटेल की जीत से उत्साहित कांगे्रस को शुरूआती दौर में जहां अच्छा रिस्पांस मिला है वहीं कुछ नये साथियों के जुडऩे से हौसला अफजाई भी हुई है.कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बार-बार गुजरात का दौरा कर रहे हैं वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दौरे पर दौरा कर रहे हैं. गुजरात चुनाव से पूर्व का आंकलन किया जाये तो परिस्थितियां इस बार भाजपा के लिये 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह नहीं है. पूरे देश में जो लहर थी वह अब ठंडी पड़ गई है.2014 के आम चुनावों में गुजरात की सभी 26 लोकसभा सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी. इसके साथ ही भाजपा की झोली में अकेले 60 फीसदी वोट गए थे लेकिन मौजूदा दौर में भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कमी आई है. नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन साल में ही राज्य में दो बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े हैं. पहले आनंदीबेन पटेल और अब विजय रुपाणी राज्य में हाल के दिनों में पाटीदार समाज के आरक्षण आंदोलनों ने भी पाटीदारों को भाजपा से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाई है. नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर साल 2015 से ही पाटीदार समाज भाजपा सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रही हैं. पाटीदार,दलित व अल्पसंख्यकों का वर्ग इस बार प्रमुख भूमिका निभायेगा.इनके साथ गुजरात के युवाओं की पूरी टीम है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जलवा गुजरात में अब किस तरह दिखाई देगा यह देखना महत्वपूर्ण है -क्या उनके प्रोजेक्टस माहौल को साथ लाने में कामयाब होंगे? भावनगर में पीएम ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट 'रो-रोÓ का लोकार्पण किया. इस बीच विकास पागल हो गये के नारें ने गुजरात की राजनीतिक फिजा को बदलने का काम किया है. नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी और जीएसटी लागू किए जाने के बाद से देश के आर्थिक विकास दर में आई गिरावट से भी भाजपा और पीएम मोदी की लोकप्रियता में कमी आई है. वर्ल्ड बैंक समेत कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने आगामी समय में भी अर्थव्यवस्था की रफ्तार कम रहने की आशंका जताई है इसके अलावा बेरोजगारी और महंगाई की वजह से भी भाजपा सरकार की लोकप्रियता और जनाधार में कमी आई है गुजरात एक व्यापार प्रधान राज्य है, इसलिए अर्थव्यवस्था की रफ्तार का सीधा-सीधा असर यहां के जनमानस पर पड़ता है ऐसे में अगर सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से वोटरों का रुझान भी भाजपा से हटकर कांग्रेस की तरफ हो सकता है इसके अलावा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी चुनावों में भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते है.चुनाव का बिगुल अभी बजा नहीं है किन्तु आहट से ही पैसों का खेल शुरू हो गया है इसके सबूत भी मिलने लगे हैं. खरीद फरेख्त के कुछ मामलो ने पार्टियों की छबि को नुकसान ही पहुंचाया है. आरोप प्रत्यारोप का दौर अभी जारी है. दलबदल और समर्थन का दौर भी जारी है.चुनाव ऐन समय पर किस वरवट बैठ जाये कोई नहीं कह सकता लेकिन प्रारंभिक गुणाभाग में तो यही लग रहा है कि गुजरात फतह सत्तारूढ पार्टी के लिये उतना आसान नहीं है.
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