जनता के मूड पर निर्भर रहेगा अब का चुनाव!

जनता के मूड पर निर्भर रहेगा अब का चुनाव!
इस साल के आखिर तक होने वाला गुजरात विधानसभा का चुनाव यह बतायेगा कि अगले चुनावों में देश की दिशा क्या होगी? क्या भाजपा अगले सालों में सता पर बनी रहेगी? क्या अहमद पटेल की जीत के बाद गुजरात में माहौल बदला है? कांग्रेस इसी उत्साह से मैदान में उतरेगी कि उसे यहां  फिर सत्ता में आसीन होने का मौका मिलेगा. भाजपा- कांग्र्र्रेस के बीच जहां टक्कर होगी वहीं  तीसरी पार्टी के रूप में आम आदमी भी मैदान में उतरकर आगे के लिये अपनी रणनीति व किस्मत दोनो आजमा सकती है. गुजरात विधानसभा चुनाव जहां भाजपा के परफोरर्मेंस की नापझोक करेगा वहीं कांग्रेस को यह संदेश देगा कि उसकी किस्मत में आगे क्या लिखा है. असल में विधानसभा का यह चुनाव न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के लिए भी यह प्रतिष्ठा का प्रश्न है. दोनों सियासी महारथी इसी राज्य से आते हैं, इसलिए इन्हीं दोनों के कंधों पर गुजरात चुनाव का दारोमदार भी टिका है.वैसे गुजरात का माहौल पिछले वर्षो में बदला है. पटेल आंदोलन को ठीक से हैन्डिल न कर पाने के कारण जहां आनंदी बेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी गवानी पड़ी वहीं पटेल आदोंलन ने जनता के मूड में काफी बदलाव भी किया है.आनंदी बेन को पड़ा सदमा इतना भी गहरा था कि वे अब आगे चुनाव न लडऩे का मन बन चुकी हैं. गुजरात गौरक्षकों के कथित हिंसक कार्यवाही ने भी कइयो को नाराज किया है.मौजूदा दौर में जब प्रधानमंत्री मोदी खुद और उनकी केंद्रीय सरकार गिरती अर्थव्यवस्था के लिए अपनी ही पार्टी के सांसदों और विरोधियों के निशाने पर हैं, तब उनकी लोकप्रियता का आंकड़ा भी पैमाने पर परखे जाने की प्रतीक्षा में खड़ा है। शायद यही वजह है कि इन दोनों नेताओं को अब गुजरात के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं पीएम बनने के बाद मोदी जहां  पहली बार अपने जन्मस्थान वाडनगर गयेे वहीं राहुल गांधी की गुजरात की बार बार की यात्राओं ने भी भाजपा के लिये चुनाव की गंभीरता को समझने मजबूर कर दिया है. मोदी ने भी अब गुजरात की बार बार यात्रा शुरू कर दी है. अभी चनुाव की घोषण नहीं हुई है किन्तु माहौल बनाने का काम जिस ढंग से हो रहा है वह इस बात का संकेत तो दे ही रहा है कि काई भी इस चुनाव को कमतर नहीं आंक रहा. विपक्ष के सारे नेताओं के मुकाबले नरेन्द्र मोदी इस समय होने वाले चुनाव में भारी पड़ जाते है-ं यही गुजरात का भी प्ज्ञस पाइंट है. इसके बावजूद हम चुनाव में जनता के बदलते मूड पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते. जनता चाहे तो पूरी सत्ता पलट सकती है या उसे संवार सकती है. प्रचार प्रसार में कौन कितना काबिल होगा नतीजा भी वैसा ही मिलेगा. गुजरात चुनाव भाजपा के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए भी  परीक्षा की घड़ी है. पिछले दो दशकों से यह पश्चिमी राज्य उसी के कब्जे में रहा है जबकि 22 सालों से सत्ता के स्वाद से कोसों दूर रहने वाली कांग्रेस का उत्साह ज्यादा है. वह फिलहाल तो उत्साहित नजर आ रही है किन्तु गिरती अर्थव्यवस्था का पूरा फायदा उठाने की ताक में  भी है कांग्रेस. कुछ चुनिंदा सीटों पर विपक्ष जिसमें आप भी शामिल है भाजपा का कई सीटों पर खेल बिगाडऩे में कामयाब हो सकती है. मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी मोदी-भाजपा-संघ की तिकड़ी को दलित विरोधी ठहराकर उनके खेल को बिगाडऩे की मुहिम में अभी से जुटी हैं.ऊना और वडोदरा में दलित समुदाय के आक्र ोश का फायदा कौन उठायेगा यह भी इस बार देखने लायक बात होगी. शरद यादव की अगुवाई वाले जनता दल (यू) धड़े के कार्यकारी अध्यक्ष और गुजरात से विधायक छोटू भाई वासावा पहले ही अपना इरादा  जता चुके हैं कि वो भाजपा का खेल बिगाडऩे के लिए मैदान में डटे हुए हैं.सत्तारूढ़ पार्टी के  खिलाफ जनता का आक्रोश सदैव प्राय: चुनावों मे देखा जाता है. जनता जो कि पांच वर्षो तक एक ही शासन व्यवस्था से ऊब चुकी होती है उसके लिये ऐसे चुनाव महत्वपूर्ण हो जाते हैं किन्तु मतदाताओं के भूल जाने की प्रवृति इस चुनाव में कितना सत्तारूढ पार्टी को फायदा पहुंचायेगी यह उनके प्रचार प्रसार पर निर्भर रहेगा.ऐसी परिस्थितियों में 182 सदस्यों वाले गुजरात विधानसभा में भाजपा के लिए न सिर्फ मौजूदा 122 सीटें बचाना एक बड़ी चुनौती होगी बल्कि नरेंद्र मोदी के विकास के गुजरात मॉडल का किला सहेजकर रखना भी कठिन टास्क हो सकता है.


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