पुलों पर ही नहीं स्टेशनों पर भी मौत का साया!
पुलों पर ही नहीं स्टेशनों पर भी मौत का साया!
मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन के हादसे ने कुछ पुराने हादसों की याद दिला दी.सवाल यह है कि हम हादसों से सबक क्यों नहीं सीखते?हमारी सरकारें दुर्घटनाओं के बाद सक्रिय हो जाती है-राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है. टीवी चैनलों में इन घटनाओं को लेकर बड़ी बहस का सिलसिला चलता है इसमें वे अपनी टीआरपी बढ़ाने की कौशिश करते हैं कुछ कमजोर वर्ग के कर्मचािरयों पर गाज गिरती है कुछ को संस्पेडं कर दिया जाता है तथा कुछ कर्मचारियों पर विभागीय जांच होती है तथा हताहत लोगों के परिजनों को मुआवजा देकर चैप्टर खत्म कर दिया जाता है. यह सिलसिला आजादी के बाद के अब तक के वर्षो में यूं ही चलता आ रहा है. आश्चर्य की बात यह है कि हमारी सरकारें किसी भी हादसों से सबक नहीं सीखती. कुछ दिन तक मामला गर्मागर्म रहता है और सब अपने कामाकाज में लग जाते हैं.मुम्बई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन हादसे से चार साल पहले इलाहाबाद और उससे भी पहले लखनऊ,दिल्ली रेलवे स्टेशनों पर भी महज अफवाहों के कारण भगदड़ मची थी और अचानक सारे इंतजाम नाकाफी हो गए थे..मुंबई की घटना का सच यह है कि तेज बारिश से बचने के लिए लोगों ने रलेवे स्टेशन के फुट ओवर ब्रिज पर शरण ले रखी थी.भीड इतनी ज्यादा थी कि ट्रेन पकडने के दबाव में जब लोग किसी तरह निकलने की कोशिश में थे, तो कहीं से कोई अफवाह उड़ी और भीड़ भगदड़ में तब्दील होते देर नहीं लगी एलफिंस्टन पश्चिमी रेलवे का स्टेशन है, जिसका नाम हाल ही में प्रभा देवी किया गया है. क्या नाम बदलने मात्र से किसी स्थल का भला होता है, उनके रूप रंग बदल जाते हैं?अगर ऐसा तो सरकारों के बदलते रहने पर ऐसा भी करते रहना चाहिये ताकि लोगों का भला हो!. एलफिंस्टन स्टेशन के साथ ही कई इलाकों को लोकल ट्रेन से जोडने वाला यह पुल यात्रियों की संख्या के हिसाब से अत्यंत संवेदनशील माना जाता है जिस वक्त यह हादसा हुआ, स्टेशन पर काफी भीड थी. पुल पर दबाव इसलिए भी बड़ा होगा कि यहां बारिश से बचना आसान लगा होगा.फुटओवर ब्रिज पर मची भगदड़ में कम से कम 22 लोग मारे गये जबकि 30 से ज्यादा लोग घायल हुए. हादसे के कई वीडियो हैं जिनमें लोग अपनी जान बचाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं.यह भी संदेह व्यक्त किया गया है कि फुटओवर ब्रिज के पास तेज आवाज के साथ हुए शॉट सर्किट के कारण लोगों में दहशत फैल गयी और वह भागने लगे इसी कारण भगदड़ मची.एक बात अच्छी हुई कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भगदड़ में मारे गए सभी लोगों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये की मुआवजा/सहायता राशि देने तथा घायलों का इलाज सरकारी खर्च पर कराने की घोषणा की है.मुआवजा परिजनों तक कब पहुंचेगा यह किसी को नहीं मालूम लेकिन अगर धोषणा हुई है तो पैसा पहुंचेगा जरूर इसकी आशा की जा सकती है.अस्पताल में मृत व्यक्तियों के शरीर को नम्बर लगाकर जिस तरह लिटाया गया उसपर भी सवाल उठा है. एलफिंस्टन पुल की हकीकत यह है कि
यह 106 साल पुराना पुल इतनी भीड़ झेलने का न अभ्यस्त था, न ही वहां ऐसे हालात में बचाव के इंतजाम थे. देशभर में भीड के अनुपात में भी पुल छोटा पड चुका है.इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी और पुराने हो चुके ढांचे पर चलते भारतीय रेल में यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. ऐसा कभी भी, कहीं भी हो सकता है. ऐसे हादसों के वक्त अफवाहों से सचेत करने, भीड़ को सही सूचना देकर संयत करने वाले सिस्टम की कमी लगातार महसूस होती रही है. दरअसल बुलेट ट्रेन का सपना पाले देश में पुराने जर्जर हो चुके ढांचे को बदलना और भीड़ पर काबू करने वाला प्रभावी तंत्र विकसित करना पहली प्राथमिकता पर लाना होगा. सच है कि यह हाल पूरे देश का है, जहां अक्सर कई ट्रेनों के एक साथ पहुंचने पर ऐसे ही हालात उत्पन्न होते दिखते हैं.इंतजाम का आलम तो यह है कि काकरोच,चूहे, कुत्ते-बिल्ली तो दूर, सांड और गाय तक हमारे स्टेशनों पर उन्मुक्त विचरण करते हैं और गाहे-बगाहे हादसों का कारण बनते रहते हैं.
मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन के हादसे ने कुछ पुराने हादसों की याद दिला दी.सवाल यह है कि हम हादसों से सबक क्यों नहीं सीखते?हमारी सरकारें दुर्घटनाओं के बाद सक्रिय हो जाती है-राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है. टीवी चैनलों में इन घटनाओं को लेकर बड़ी बहस का सिलसिला चलता है इसमें वे अपनी टीआरपी बढ़ाने की कौशिश करते हैं कुछ कमजोर वर्ग के कर्मचािरयों पर गाज गिरती है कुछ को संस्पेडं कर दिया जाता है तथा कुछ कर्मचारियों पर विभागीय जांच होती है तथा हताहत लोगों के परिजनों को मुआवजा देकर चैप्टर खत्म कर दिया जाता है. यह सिलसिला आजादी के बाद के अब तक के वर्षो में यूं ही चलता आ रहा है. आश्चर्य की बात यह है कि हमारी सरकारें किसी भी हादसों से सबक नहीं सीखती. कुछ दिन तक मामला गर्मागर्म रहता है और सब अपने कामाकाज में लग जाते हैं.मुम्बई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन हादसे से चार साल पहले इलाहाबाद और उससे भी पहले लखनऊ,दिल्ली रेलवे स्टेशनों पर भी महज अफवाहों के कारण भगदड़ मची थी और अचानक सारे इंतजाम नाकाफी हो गए थे..मुंबई की घटना का सच यह है कि तेज बारिश से बचने के लिए लोगों ने रलेवे स्टेशन के फुट ओवर ब्रिज पर शरण ले रखी थी.भीड इतनी ज्यादा थी कि ट्रेन पकडने के दबाव में जब लोग किसी तरह निकलने की कोशिश में थे, तो कहीं से कोई अफवाह उड़ी और भीड़ भगदड़ में तब्दील होते देर नहीं लगी एलफिंस्टन पश्चिमी रेलवे का स्टेशन है, जिसका नाम हाल ही में प्रभा देवी किया गया है. क्या नाम बदलने मात्र से किसी स्थल का भला होता है, उनके रूप रंग बदल जाते हैं?अगर ऐसा तो सरकारों के बदलते रहने पर ऐसा भी करते रहना चाहिये ताकि लोगों का भला हो!. एलफिंस्टन स्टेशन के साथ ही कई इलाकों को लोकल ट्रेन से जोडने वाला यह पुल यात्रियों की संख्या के हिसाब से अत्यंत संवेदनशील माना जाता है जिस वक्त यह हादसा हुआ, स्टेशन पर काफी भीड थी. पुल पर दबाव इसलिए भी बड़ा होगा कि यहां बारिश से बचना आसान लगा होगा.फुटओवर ब्रिज पर मची भगदड़ में कम से कम 22 लोग मारे गये जबकि 30 से ज्यादा लोग घायल हुए. हादसे के कई वीडियो हैं जिनमें लोग अपनी जान बचाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं.यह भी संदेह व्यक्त किया गया है कि फुटओवर ब्रिज के पास तेज आवाज के साथ हुए शॉट सर्किट के कारण लोगों में दहशत फैल गयी और वह भागने लगे इसी कारण भगदड़ मची.एक बात अच्छी हुई कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भगदड़ में मारे गए सभी लोगों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये की मुआवजा/सहायता राशि देने तथा घायलों का इलाज सरकारी खर्च पर कराने की घोषणा की है.मुआवजा परिजनों तक कब पहुंचेगा यह किसी को नहीं मालूम लेकिन अगर धोषणा हुई है तो पैसा पहुंचेगा जरूर इसकी आशा की जा सकती है.अस्पताल में मृत व्यक्तियों के शरीर को नम्बर लगाकर जिस तरह लिटाया गया उसपर भी सवाल उठा है. एलफिंस्टन पुल की हकीकत यह है कि
यह 106 साल पुराना पुल इतनी भीड़ झेलने का न अभ्यस्त था, न ही वहां ऐसे हालात में बचाव के इंतजाम थे. देशभर में भीड के अनुपात में भी पुल छोटा पड चुका है.इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी और पुराने हो चुके ढांचे पर चलते भारतीय रेल में यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. ऐसा कभी भी, कहीं भी हो सकता है. ऐसे हादसों के वक्त अफवाहों से सचेत करने, भीड़ को सही सूचना देकर संयत करने वाले सिस्टम की कमी लगातार महसूस होती रही है. दरअसल बुलेट ट्रेन का सपना पाले देश में पुराने जर्जर हो चुके ढांचे को बदलना और भीड़ पर काबू करने वाला प्रभावी तंत्र विकसित करना पहली प्राथमिकता पर लाना होगा. सच है कि यह हाल पूरे देश का है, जहां अक्सर कई ट्रेनों के एक साथ पहुंचने पर ऐसे ही हालात उत्पन्न होते दिखते हैं.इंतजाम का आलम तो यह है कि काकरोच,चूहे, कुत्ते-बिल्ली तो दूर, सांड और गाय तक हमारे स्टेशनों पर उन्मुक्त विचरण करते हैं और गाहे-बगाहे हादसों का कारण बनते रहते हैं.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें