उन्हें इतना भी मजबूर न करें कि वे फांसी पर चढ़ जायें!


उन्हें इतना भी मजबूर न करें कि वे फांसी पर चढ़ जायें!
बाल सुधार की दिशा में उठाए गए उपायों और प्रगति के तमाम दावों के बावजूद भारत में  कम उम्र के बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है. देश में रोजाना औसतन ऐसे आठ से दस बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं.राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से जारी ताजा आंकड़ों से यह कड़वी हकीकत सामने आई है. सामाजिक माहौल में बदलाव, माता-पिता का रवैया और उम्मीदों का बढ़ता दबाव ही इसकी प्रमुख वजह बताई जा रही है. आत्महत्या को नम्बर के हिसाब से देखा जाये तो मध्य प्रदेश का नम्बर पहला है उसके बाद तमिलनाडु पश्चिम बंगाल  का नंबर है. मध्य प्रदेश में हुई  घटनाओं में लड़के लड़कियां दोनों शामिल हैं. बच्चों में बढ़ती इस प्रवृत्ति की कई वजहें हैं. एक दशक पहले के मुकाबले मौजूदा दौर में बच्चे अपने आसपास के माहौल और हालात से जल्दी अवगत हो जाते हैं.  ज्यादातर बच्चे कम उम्र में इन हालातों से उपजे मानसिक दबाव को नहीं सह पाते.मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कम तादाद और स्कूली स्तर पर काउंसलरों की कोई व्यवस्था नहीं होने की वजह से बच्चों के पास अपनी भावनाएं व्यक्त करने के ज्यादा विकल्प नहीं होते. इसके अलावा कामकाजी अभिभावक बच्चों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते.ऐसी परिस्थितियों में बच्चों में हताशा लगातार बढ़ती रहती है. कई बच्चे इससे निपटने में नाकाम होकर आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं. परीक्षा में नकल करते पकड़े जाने की स्थिति में बच्चों को सार्वजनिक तौर पर अपमानित या प्रताड़ित नहीं किया जाना चाहियें किन्तु ऐसा होता है और इसका हश्र आत्महत्या के रूप में परिवर्तित हो जाता है. एकल परिवारों में बच्चों को भावनात्मक सुरक्षा नहीं मिल पाती. ऐसे परिवारों को इस दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए.बच्चों को स्थायी तौर पर तनाव की स्थिति में रखने के लिए मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के साथ माता-पिता भी जिम्मेदार हैं.माता-पिता के पास बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान रखने के लिए समय की कमी और लगातार बेहतर प्रदर्शन का दबाव ही मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार हैं. कुछ माता-पिता अपने अधूरे सपनों को साकार करने का बोझ बच्चों पर थोप देते हैं. ऐसे में बच्चों पर शुरू से ही मानसिक दबाव बन जाता है. ऐसे दबाव उसे कामयाब नहीं होने देते. नाकामी की हालत में वह हताश होकर आत्महत्या का रास्ता चुन लेता है.परिस्थितियां अब ऐसी  हो गई कि बच्चों पर बेवजह मानसिक बोझ थोपने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना जरूरी है. माता-पिता को भी अपने बच्चों पर ध्यान देना होगा. इसके अलावा स्कूलों में भी काउंसलरों की नियुक्ति अनिवार्य की जानी चाहिए. माता-पिता को छोटी उम्र से ही बच्चों पर अपनी मर्जी थोपने की बजाय उनको अपना करियर चुनने की आजादी देनी चाहिए. इससे उन पर अनावश्यक दबाव नहीं पैदा होगा. हम अपने बच्चों को नाकामी का सामना करना नहीं सिखाते. इससे बच्चे सहज ही अपनी नाकामी नहीं पचा पाते.बच्चों पर पढ़ाई या करियर को लेकर अभिभावकों या स्कूलों की ओर से अनावश्यक दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए. वैसी स्थिति में बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है.बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति का  मामला देश में उस समय उठा जब कोटा के कोचिंग संस्थानों में तनावग्रस्त बच्चों ने आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाया.देश के सभी शहरों तथा कस्बों तक में शिक्षा की ऐसी दुकानें खुली हुई हैं, जो 'जीनियस के निर्माण का दावा करती हैंÓ और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उन्हें डॉक्टरी या इंजीनियरिंग की पढ़ाई में एडमिशन की गारंटी देती हैं.वर्तमान में यह कोचिंग का सुपरमार्केट हो गया है. देशभर में शोहरत के साथ यहां कोचिंग के लिए पहुंच रहे छात्रों द्वारा आत्महत्या की अधिक खबरें भी आने लगी हैं.  अधिकतर अपने घरवालों से दूर रहकर भयानक तनाव के बीच तैयारी करते हैं. कोचिंगों के नियमित टेस्ट में नीचे लुड़कना बच्चों के लिए जानलेवा साबित होता है. परिजन बच्चे के सर पे सपनों की एक पोटली लाद कर कोचिंग भेजते हैं, तो बच्चा उसे साकार करना चाहता है. लेकिन, सफलता के इस मापदंड में सभी सफल होंगे, यह असंभव है.भारत के संपन्न राज्यों के शिक्षित युवा इतनी बड़ी तादाद में मृत्यु को गले लगा रहे हैं, जो दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले सबसे अधिक है. और यह पहला अवसर नहीं है, जबकि हम इस कड़वी हकीकत से रूबरू हो रहे हैं.



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