बुरे और अच्छे के पीछे पिसते 'हम,आखिर कब तक इंतजार करना होगा?
अच्छे और बुरे की लड़ाई के बीच आज एक और खबर आई कि अगले महीने से बिजली भी सरकार की मर्जी पर चलेगी अर्थात बिजली का बिल भी ग्यारह प्रतिशत बढ़ाकर देना होगा. पेट्रोल-डीजल के दाम कम होने के बाद फिर दाम पुराने ढर्रे पर याने यूपीए सरकार के लेवल तक पहुंच गया है जबकि रसोई से दाल गायब हो चुकी है फिर यह चाहे तुअर की दाल हो या चने की दाल, सबका भाव आसमान छू रहा है. हम एक आम आदमी की तरह किसी पार्टी पालिटिक्स को छोड़कर देखें तो क्या हमें उस और इसमें कोई फर्क पिछले एक साल में दिखा? दोनों लगभग एक जैसे हैं. एक कम बोलता था दूसरा ज्यादा बोलता है-ऐसे माहौल में हमने आजादी के एक साल और काट दिये. इस वर्ष के शुरूआती दौर मेें पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए तो लगा वास्तव में अच्छे दिन आने शुरू हो गये, बुरे दिन वालों की बोलती बंद हो गई लेकिन बजट आते तक सारी आशाओं पर पानी फिरने लगे फिर जहां सपने दिखाने की झडी लग गई तो यहां से वहां जाने का किराया बढाकर हमारे आने जाने को भी सीमित कर दिया. रेल,बस,प्लेन के किराये में तो बढौत्तरी हुई ही साथ ही खाना खाने नहाने धोने तक में सर्विस टैक्स बढ़ा दिया गया. अच्छे या बुरे दिन की तुलना कैसे करें? वो भी यही करते थे, यह भी वही कर रहे हैं.उनने कुछ कम किया तो यह कुछ ज्यादा कर रहे हैं वहीं उन्होंने कुछ ज्यादा किया तो यह कम कर रहे हैं. काले धन को विदेश से लाकर पन्द्रह लाख रूपये हर व्यक्ति की झोली में डालने का सपना तो लोग अब भी देख रहे हैं, न यह पैसा आया और न वह पैसा जो कालेधन के रूप में स्विस बैंक में सुरक्षित है. बुरे और अच्छे दिन वाली दोनों सरकारें लुभावने वादे युवाओं से करती रही कि उन्हें अच्छी नौकरी दिला देंगे इसके लिये नये नये उद्योग लगाये जायेगें सार्वजनिक क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा इन्वेस्ट तो किया जा रहा है लेकिन नौकरी कहां? अच्छे दिन दिखाने वाले अपनेे छोटे से कार्यकाल के दौरान कई बड़े देशों की यात्रा कर आये या कहे कि विश्व भ्रमण कर आये और बुरे का आरोप जिन पर लगा वे कई दिनों तक अज्ञातवास में रहे ऐेसे में किसने किसका भला किया? कुख्यात आतंकवादियों के मामले में जितनी प्रत्याशा जनता ने की थी उसपर भी निराशा ही हाथ लगी. मुम्बई हमले के आंतकवादियों में से एक को भी पकड़कर भारत वापस नहीं लाया जा सका जबकि दाउद इब्राहिम के मामले में यह सरकार भी पूर्व सरकार की तरह जहां की तहां है उलटा पडौसी देश के आतंकवादियों का कहर कश्मीर में फिर अलगाववाद के पंख बिखेर रहा है. जनता समझ नहीं पा रही कि इतने भारी बहुमत के बाद भी सरकार कई मामलों में कठोर निर्णय लेने से क्यों हिचकिचा रही है?महिलाओं पर अत्याचार, यौन शोषण,अपहरण बलात्कार की घटनाओं में जस की तस स्थिति बनी हुई है. नई सरकार ने जुवेनियल नियम में जरूर बदलाव किया किन्तु कानून को इतना कठोर बनाने में वह अब भी हिचक रही है कि अपराधी एक बार पकड़ में आ जाये तो फिर कभी छूटे ही नहीं. अपराधो के मामले में सरकार के लचीले रु ख के कारण अपराधियों के हौसले बढ़े हैं.फांसी की सजा तो कइयों को दी गई अमल में कोई मामला नहीं आया. जनता यह सब देख रही है...लोकतंत्र में वोट भले ही भेड़ चाल में डलते हैं लेकिन पांच साल का आंकलन बहुत ही सोच समझकर होता है इसलिये अभी भी वक्त है- वायदों को पूरा करना ही होगा.
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