चिथड़े कपड़ों में लिपटे नन्हें हाथों की बुझे बारूद के ढेर में खुशियों की खोज
रायपुर, बुधवार दिनांक ८ नवंबर
चिथड़े कपड़ों में लिपटे नन्हें हाथों की
बुझे बारूद के ढेर में खुशियों की खोज
यह करीब पांच- साढ़े पांच बजे का वक्त होता है,जब लोग दीवाली का जश्र मनाकर गहरी नींद में सो रहे होते हैं- फटे- पुराने कपड़े पहने बच्चों का एक हुजूम लोगों के दरवाजों के सामने होता है। दीवाली के बाद आसपास बिखरे पड़े कचरे के ढेर से यह अपनी खुशी ढूंढते हैं। इन बच्चों की दीवाली लोगों के न टूटने वाले पटाखों की बारूद से मनती है। यह दौर दो- तीन दिन तक चलता है। तब तक इनके पास काफी ऐसे पटाखें इकट्ठे हो जाते हैं। करोड़ों रूपये के पटाखें लोगों ने एक- दो दिन में फूंक डाले, किंतु इसी समाज का एक वर्ग ऐसा भी है। जो सिर्फ हमारी खुशियों को ललचाते हुए निहारता रहता है। यह इस एक साल की बात नहीं है, हर साल ऐसा ही होता है। पो फटने से पहले ही गरीब बच्चे इसी आस में कि कहीं कचरे के ढेर में कोई जिंदा फटाका मिल जायें। फूटे हुए कचरे को उलट- पुलट करते हैं, ताकि वे अपनी दीवाली मना सकें। साठ - बासठ साल की आजादी के इस दौर में हमने कई ऐसे दौर देखे जब देश संकट की घडिय़ों से गुजरा, देश को विदेश से अनाज आयात करना पड़ता था। युद्व,अकाल और प्राकृतिक विपदाओं के उस दौर ने लोगों के सामने मुसीबतों के पहाड़ खड़े हो गये थे। समय बीतता गया और उन्नति तथा विकास के दौर ने देश की दिनचर्या ही बदल दी। अमरीकी और रूसी मदद की जगह देश का अनाज हमारे गोदामों में भरा पड़ा है। विकास के पथ पर हमारी बराबरी अन्य विकसित देश के मुकाबले होती है। जबकि ताकत के मामले में हम विश्व की तीसरी ताकत के रूप में हैं किंतु इसके बावजूद हममें जो खामियां हैं। उसे दूर करने का प्रयास किसी स्तर पर नहीं हो रहा। गरीब वर्ग आज भी उसी हालत में है। वह किसी खुशी में भी मुख्य धारा के साथ नहीं जुड़ पा रहा। पंडित नेहरू ने एक समय आराम -हराम है का नारा दिया था, लोग इसे भूल गये। हम अपने त्योहार और उत्सवों की आड़ में अपने सारे कर्तव्यों को भूलते जा रहे हैं। भले ही एक घर में मुश्किल से एक सीमा तक पटाखे फूटते हों, किंतु ऐसा कर पूरे देश में करोड़ों का पटाखा फूट जाता है और हम चैन की नींद सो जाते हैं। दूसरे दिन से कम से कम एक हफ्ते तक कोई काम नहीं होता। अलाली इतनी छा जाती है कि लोग अपना सारा कार्य, यहां तक कि अपनी नौकरी का कर्तव्य भी भूल जाते हैं और स्वीकृत छुट्टियों को और दुगना कर देते हैं। त्योहार के दूसरे- तीसरे दिन भी दुकानें व अन्य संस्थानों का बंद रखना क्या इसी प्रवृत्ति का द्योतक नहीं है? देश ने त्योहार पर जो खुशियां मनाई, वह वाजिब थी। अगर सिर्फ यह मिठाइयों, नाच- गानों और अन्य कार्यक्रमों तक ही सीमित रहता तो उचित था किंतु इस दौरान जो आतिशबाजी के नाम पर अरबों रूपये हमने फूंक डाले। उस पर आगे के वर्षो में विचार करने की जरूरत है। आशिबाजी का पैसा आज उन गरीबों के कपड़े व अन्य उनकी आवश्यकताओं पर व्यय किया जाता। तो शायद उन गरीबों की दुआएं लोगों के घर- घर पहुंचती। आतिशबाजी के रूप में आवाज करने वाले पटाखों पर सरकार ने बहुत हद तक प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन इसके बावजूद ऐसे पटाखे बाजार में कैसे पहुंच जाते हैं? यह सरकार की लापरवाही का ही परिणाम है कि ऐसे पटाखा बनाने वाले कारखानो को वह ऐसा करने से नहीं रोकती।
चिथड़े कपड़ों में लिपटे नन्हें हाथों की
बुझे बारूद के ढेर में खुशियों की खोज
यह करीब पांच- साढ़े पांच बजे का वक्त होता है,जब लोग दीवाली का जश्र मनाकर गहरी नींद में सो रहे होते हैं- फटे- पुराने कपड़े पहने बच्चों का एक हुजूम लोगों के दरवाजों के सामने होता है। दीवाली के बाद आसपास बिखरे पड़े कचरे के ढेर से यह अपनी खुशी ढूंढते हैं। इन बच्चों की दीवाली लोगों के न टूटने वाले पटाखों की बारूद से मनती है। यह दौर दो- तीन दिन तक चलता है। तब तक इनके पास काफी ऐसे पटाखें इकट्ठे हो जाते हैं। करोड़ों रूपये के पटाखें लोगों ने एक- दो दिन में फूंक डाले, किंतु इसी समाज का एक वर्ग ऐसा भी है। जो सिर्फ हमारी खुशियों को ललचाते हुए निहारता रहता है। यह इस एक साल की बात नहीं है, हर साल ऐसा ही होता है। पो फटने से पहले ही गरीब बच्चे इसी आस में कि कहीं कचरे के ढेर में कोई जिंदा फटाका मिल जायें। फूटे हुए कचरे को उलट- पुलट करते हैं, ताकि वे अपनी दीवाली मना सकें। साठ - बासठ साल की आजादी के इस दौर में हमने कई ऐसे दौर देखे जब देश संकट की घडिय़ों से गुजरा, देश को विदेश से अनाज आयात करना पड़ता था। युद्व,अकाल और प्राकृतिक विपदाओं के उस दौर ने लोगों के सामने मुसीबतों के पहाड़ खड़े हो गये थे। समय बीतता गया और उन्नति तथा विकास के दौर ने देश की दिनचर्या ही बदल दी। अमरीकी और रूसी मदद की जगह देश का अनाज हमारे गोदामों में भरा पड़ा है। विकास के पथ पर हमारी बराबरी अन्य विकसित देश के मुकाबले होती है। जबकि ताकत के मामले में हम विश्व की तीसरी ताकत के रूप में हैं किंतु इसके बावजूद हममें जो खामियां हैं। उसे दूर करने का प्रयास किसी स्तर पर नहीं हो रहा। गरीब वर्ग आज भी उसी हालत में है। वह किसी खुशी में भी मुख्य धारा के साथ नहीं जुड़ पा रहा। पंडित नेहरू ने एक समय आराम -हराम है का नारा दिया था, लोग इसे भूल गये। हम अपने त्योहार और उत्सवों की आड़ में अपने सारे कर्तव्यों को भूलते जा रहे हैं। भले ही एक घर में मुश्किल से एक सीमा तक पटाखे फूटते हों, किंतु ऐसा कर पूरे देश में करोड़ों का पटाखा फूट जाता है और हम चैन की नींद सो जाते हैं। दूसरे दिन से कम से कम एक हफ्ते तक कोई काम नहीं होता। अलाली इतनी छा जाती है कि लोग अपना सारा कार्य, यहां तक कि अपनी नौकरी का कर्तव्य भी भूल जाते हैं और स्वीकृत छुट्टियों को और दुगना कर देते हैं। त्योहार के दूसरे- तीसरे दिन भी दुकानें व अन्य संस्थानों का बंद रखना क्या इसी प्रवृत्ति का द्योतक नहीं है? देश ने त्योहार पर जो खुशियां मनाई, वह वाजिब थी। अगर सिर्फ यह मिठाइयों, नाच- गानों और अन्य कार्यक्रमों तक ही सीमित रहता तो उचित था किंतु इस दौरान जो आतिशबाजी के नाम पर अरबों रूपये हमने फूंक डाले। उस पर आगे के वर्षो में विचार करने की जरूरत है। आशिबाजी का पैसा आज उन गरीबों के कपड़े व अन्य उनकी आवश्यकताओं पर व्यय किया जाता। तो शायद उन गरीबों की दुआएं लोगों के घर- घर पहुंचती। आतिशबाजी के रूप में आवाज करने वाले पटाखों पर सरकार ने बहुत हद तक प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन इसके बावजूद ऐसे पटाखे बाजार में कैसे पहुंच जाते हैं? यह सरकार की लापरवाही का ही परिणाम है कि ऐसे पटाखा बनाने वाले कारखानो को वह ऐसा करने से नहीं रोकती।
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