सीबीएस सी कोर्स या बोझ का पिटारा!
सीबीएससी कोर्स कराने वाले स्कूलों का यह हाल है कि वे बच्चों को पढ़ाने, दोपहर का भोजन खिलाने, बसों से स्कूल लाने ले जाने, पुस्तक व अन्य वस्तुओं की खरीदी, स्कूल ड्रेस आदि के नाम पर पैरेंटस से लाखों रुपए सालभर का वसूल करने में लगे रहते हैं फिर भी वे न बच्चों का मानसिक विकास कर पाते हैं और न ही उन्हें ठीक ढंग से शिक्षा दे पाते हैं. सारा बोझ पैरेंटस पर ही लाद दिया गया है. बार-बार माता पिता को फोन कर उनके बच्चों की कमजोरी बताकर स्कूलें ने ट्यूशन का रास्ता खोज निकाला है, इससे भी भारी इनकम हो रही है. बच्चों को जिन विषयों का लगाव नहीं है उनको जर्बदस्ती उनके दिमाग पर ठूसने की एक होड़ सी लगी है.जो पुस्तके छोटे बच्चो को पढ़ाने के लिये तैयार की गई है उसमें के कुछ प्रश्नों के उत्तर तो न स्कूल के टीचरों को पता रहता है और न ही बच्चो के माता पिता को-शायद लिखने वाले को भी नहीं! यह देखने वाला कोई भी नहीं की बच्चों का मानसिक विकास किस तरह से व कैसे किया जा रहा है?
सरकार ने विशेषकर छत्तीसगढ़ सरकार ने बच्चों के बस्तों का बोझ कम करने का आदेश दिया था पर उसका भी पालन हो रहा यह देखने वाला कोई नहीं. छोटे-छोटे बच्चे 10 से 15 किलो तक का वजन लाद रहे हैं. स्कूल प्रबंधन को शासन ने यह भी निर्देश दिया है कि बच्चे के वजन के हिसाब से उनके बस्ते का वजन होना चाहिए साथ ही नर्सरी, पीपी 1, पीपी 2 एवं क्लास1, 2 तक के बच्चों की क्लास स्कूल में ग्राउंड फ्लोर पर लगाने का निर्देश दिया है उसके बावजूद भी स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों की क्लास 1 फ्लोर, 2 फ्लोर में भी लगाए जा रहा है जिससे भारी भरकम बस्ता उठाकर क्लास तक जाना पड़ रहा है इससे उनको शारीरिक परेशानियां भी हो रही है. बच्चों पर किये गये शोध से पता चला है कि भारी भरकम बस्ते का बोझ लादने से बच्चों के रीढ़ की हड्डी सामने की ओर अधिक झुक रही है, इससे शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास भी प्रभावित हो रहा है. स्कूलों में बच्चों को वही विषय पढ़ाने की जरूरत है जो उनकी रूचि की हो- इस बातपर कोई ध्यान किसी तरफ से नहीं दिया जा रहा है. अगर कोई बच्चा इंजीनियर, डॉक्टर,वैै ज्ञान िक बनना चाहता है तो उसकी प्रारंभिक शिक्षा भी उनके प्रारंभिक विषय के आधार पर ही दी जानी चाहिये. उसमें जबर्दस्ती वाली पुस्तकों को क्यों लादा जा रहा...?
किंतु ऐसी पहल की कोशिश आज तक नहीं हुई। बच्चों को इतनी पुस्तकों को पढ़ऩे लिखने के लिये मजबूर कर दिया गया है कि वह इससे कन्फयूज होकर कुछ समझ ही नहीं पा रहा कि आखिर क्या पढूं कैसे पढूं? दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों के शैक्षणिक विकास के नाम पर शारीरिक व मानसिक विकास को दरकिनार कर दिया गया है. स्कूल सिर्फ शैक्षणिक फैक्ट्री बनकर रह गई है जिसमें बच्चो के सिर पर हथोडे से वार हो रहा है. स्कूल का होमवर्क इतना कि बच्चे का पूरा परिवार भी बैठकर उसे नहीं निपटा सकता. खेलकूद, मनोरंजन से दूर रख बच्चो को यह ऊंचे- ऊंचे स्कूल कैसी शिक्षा दे रहे हैं यह समझ से परे हैं. पूरे मामले को शिक्षा से जुड़े ऐसे विद्वानों के सामने रखने की जरूरत है जो संपूर्ण व्यवस्था को नये सिरे से देखे, समझे और बच्चो को सही ढंग से शिक्षित करने का इंतजाम कर सकें वरना आगे आने वाली पीढ़ी शिक्षित होने की जगह मानसिक विकार लेकर समाज के लिये भी बोझ बन जायेगी.
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