झटका स्मृति को तो प्रमोशन,,,,
झटका स्मृति को तो प्रमोशन जावडेकर को और खिचाई जेठली की....!
मोदी मंत्रिमंडल का दूसरी बार गठन हुआ तो कुछ नया -नया सा हुआ, मंत्रिमंंडल में कुछ टेलेंटेड और क्षेत्र के जानकार लोगों को शामिल किया गया तो कु छ निष्क्रिय लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया.धर्म और जातिवाद का कोई खेल यहां काम न आया. मोदी ने पहले ही अपने मंत्रियों को सचेत करते हुए कहा था कि निष्क्रियता त्यागे वरना मुसीबत में पड़ जाओगे.भले ही उनका गुस्सा बड़े पैमाने पर नहीं निकला किन्तु विवादों में घिरी स्मृति ईरानी से शिक्षा मंत्रालय छीनकर उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की स्वच्छता पर मुहर जरूर लगवा ली. मीडिया के लिये स्मृति का शिक्षा मंत्रालय से हटाना और अरूण जेठली के पर कतरना दोनों ही महत्वपूर्ण खबर बनी. स्मृति ईरानी को अब मोदी सरकार में कपड़ा मंत्री बनाया है.मोदी ने इस बार एक तरह से अगले चुनावों की रणनीति तैयार की है. आने वाले चुनावों के लिये विभिन्न राज्यो से विशेषकर यूपी से ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया गया जबकि छत्तीसगढ़ को इस बार भी कोई प्रतिनिधित्व अपने मंत्रिमंडल में नहीं दिया. छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का सिलसिला पिछले कई सालों से यूं ही चलता आ रहा है.बहरहाल मंत्रिमंडल पुर्नगठन में स्मृति ईरानी को मिले बड़े झटके को सभी तरफ गंभीरता से देखा जा रहा है क्योंकि दो साल पहले लोकसभा चुनाव में हार के बावजूद स्मृति को शिक्षा मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण जिम्मा मिला था. स्मृति ईरानी पर मंत्री बनते ही सबसे पहले चुनावी शपथ पत्र में डिग्री की गलत जानकारी देने का आरोप लगा. स्मृति 2014 में ही दूसरी बार विवादों में घिर गईं. जब उनके मंत्री बनने के तुरंत बाद यूजीसी के आदेश पर दिल्ली यूनिवर्सिटी को ग्रेजुएट डिग्री कोर्स की मियाद चार साल करने का फैसला वापस लेना पड़ा.हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी को लेकर भी स्मृति ईरानी के मंत्रालय की खूब किरकिरी हुई. वेमुला की खुदकुशी को लेकर विपक्ष ने स्मृति पर संसद को गुमराह करने का आरोप लगाया. देशविरोधी नारेबाजी विवाद में दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी डीयू के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया की गिरफ्तारी का विवाद भी खूब गरमाया. जमानत पर छूटने के बाद कन्हैया ने स्मृति पर जमकर निशाना साधा. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी के दर्जे पर सवाल उठाकर भी स्मृति ईरानी विरोधियों के निशाने पर आ गई थीं.आईआईटी कैंटीन विवाद से भी स्मृति ईरानी का नाता रहा. तब शिक्षा मंत्रालय ने आईआईटी संस्थानों को शाकाहारी छात्रों के लिए अलग हॉस्टल बनाने का निर्देश जारी किया था. आईआईटी मद्रास में दलित छात्रों के गु्रप आंबेडकर पेरियार पर मोदी सरकार की आलोचना को लेकर बैन लगाने पर भी स्मृति ईरानी की खूब आलोचना हुई थी. होहल्ला मचने पर ये बैन हटा था.इसके अलावा आईआईटी मुंबई बोर्ड के अध्यक्ष पद से परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर का इस्तीफा, जर्मन भाषा की जगह संस्कृत पढ़ाने का विवाद और क्रिसमस की छुट्टी के दिन गुड गवर्नेंस डे रखने का विवाद भी स्मृति ईरानी के कार्यकाल के दौरान सामने आया. इन विवादों को लेकर मोदी सरकार लगातार विपक्ष के निशाने पर रही थी. प्रकाश जावडेकर ही मोदी मंत्रिमंडल के इकलौते ऐसे चेहरे हैं जिन्हें पदोन्नति मिली. जावडेकर को पर्यावरण मंत्रालय में राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार से कैबिनेट मंत्री बना दिया गया हैं.. प्रकाश जावडेकर बतौर पर्यावरण मंत्री स्वतंत्र प्रभार प्रकाश जावडेकर ने उन परियोजनाओं पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जो प्रधानमंत्री मोदी के दिल के बेहद करीब थी. फिर चाहें गंगा सफाई की बात हो, जलवायु सम्मेलन हो या स्वच्छ भारत की, पेरिस में हुए जलवायु सम्मेलन में विश्व को सोलर एलायंस का कॉन्सेप्ट समझाया जिसे पहली बार में 120 देश सदस्य बनने को तैयार हो गए और इसका मुख्यालय भी भारत में ही बना. गंगा सफाई मे तथा स्वच्छ भारत के सपने में जुटे-जावडेकर ने सफाई के लिए पांच पॉलिसी बनाई जिसमें ईवेस्ट यानी मोबाइल, कंप्यूटर जैसे कचरे से लेकर कंस्ट्रक्शन वेस्ट मैनेजमेंट यानी मेट्रो-घर बनाने-तोडऩे में निकलने वाले मलबे को ठिकाने लगाने की नीति शामिल है. वन काटने के एवज में किसी प्रोजेक्ट से मिलने वाले पैसे के इसेतमाल के लिए बिल लोकसभा से पारित कराया गया.जावडेकर को प्रमोशन है जबकि वित्त मंत्री जेठली जो पहले से मीडिया के निशाने पर थे मोदी के लिये भी कतिपय मामलों में किरकिरी बने...उन्हें भी अब संभलने का संकेत दिया गया है.
सोशल मीडिया दोस्त है तो दुश्मन भी, बच्चो का ध्यान पुस्तको से हटा!
एक सर्वे में एक चिंतनीय बात सामने आई है कि सोशल मीडिया बच्चों और युवाओं को काफी नुकसान पहुंचा रहे है. सर्वे में जो बाते सामने आई है अगर उसका विश£ेषण किया जाये तो बात साफ है कि सोशल मीडिया से हमारी दोस्ती हमें अपनों से बहुत हद तक दूर करती जा रही है. बच्चे तो बच्चे बड़े भी इसकी चपेट मे आ रहे हैं. सोशल मीडिया से बच्चों की मित्रता ने उन्हेें अपने स्कूल व परिवार से दूर करना शुरू कर दिया है. समाज में घटित होने वाली कई किस्म की घटनाओ के पीछे सोशल मीडिया को ही दोषी ठहराया जा रहा है.बच्चों में पुस्तके पढऩे की आदत लगभग खत्म हो गई है उनको पुस्तकों से नफरत होने लगी है. इसके पीछे सोशल मीडिया है जो पुस्तकों के प्रति उनके आकर्षण को छीनकर अपनी ओर ले जा रही है. बच्चों के पढऩे की आदत कम हो रही है. चाहे वह यूं ही मिलने वाला समय हो या कोई्र छुटटी का दिन अथवा गर्मियों की छुट्टियां बच्चे व युवा अपना समय मनोरंजक पुस्तकें पढ़कर बिताने की जगह अब सोशल नेटवर्किग साइट्स पर चैट करना अधिक पसंद कर रहे हैं.वास्तविकता यह है कि किताबें न पढऩे की वजह से बच्चों की रचनात्मकता और कल्पनाशीलता में कमी आ रही है जो उनके भविष्य के लिए ठीक नहीं है. मनोरोग विभाग द्वारा हाल के दिनों में किए गए एक सर्वेक्षण में 1350 बच्चों को शामिल किया गया इसमें उनकी सामान्य दिनचर्या में सोशल साइट्स के प्रभाव संबंधी 20 बिंदुओं पर प्रश्न किया गया उसमें पाया गया कि सोशल साइट्स का प्रयोग बच्चे करते हैं उसमें से अधिकांश का कहना यह था कि उन्हें ज्ञान अजिर्त करने के लिए सोशल साइट्स पर निर्भर रहना पड़ता है. कुछ मामलों में इसे अच्छी आदत कहा जा सकता है, लेकिन लगातार किताबों से दूरी बच्चों की कल्पनाशीलता को कम कर रही है.अच्छी सोशल साइटस पर जाते जाते बच्चे व युवा दोनो ही भटक जाते हैं और दूसरी साइटस पर अपना मनोरंजन करने लगते है जिसपर किसी का कोई नियंत्रण नहीं रहता. बच्चे ज्यादातर फेसबुक, इंस्ट्राग्राम और ट्विटर, व्हाटस अप जैसी सोशल साइट्स पर अपनी उम्र छिपाकर आईडी बना रहे हैं. 14 से 17 साल की उम्र तक के बच्चों से सोशल मीडिया संबंधी उनकी आदतों के बारे में जानकारी हासिल करने पर यह पाया गया है कि 40 प्रतिशत बच्चे 17 साल की उम्र से पहले ही स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं.जानकारी एकत्र करने के प्रति छात्रों की जिज्ञासा बढ़ी है, लेकिन इसके लिए वह शत प्रतिशत सोशल साइट्स पर ही निर्भर है. किताबें पढऩे या कहानी सुनते समय विचारों में एक तरह की आभासी दुनिया बनती है जो रचनात्कता को बढ़ाती है. संचार के नए माध्यमों से यह कम हो रही है. सोशल साइटस से देखकर ज्ञान प्राप्त करने और पुस्तके पढ़कर ज्ञान अर्जित करने में बहुत अंतर है. मोबाइल और कम्पयूटर, टीवी पर लगातार नजरे गढ़ायें बैठे रहने से बच्चो की आंखों पर भी प्रभाव पड़ रहा है. कम उम्र में बच्चों को चश्मा लगाने की नौबत आ रही है. पिचयासी प्रतिशत बच्चे आज सोशल साइटस से जुड़े हैं यह सिर्फ एक बड़े महानगर का आंकड़ा है-जुडऩे के पीछे कारण भी स्कूलो में सोशल साइट्स के बारे में बच्चो के बीच हाने वाली चर्चा है. वे आपस में एक दूसरे से पूछते हें और अपनी आईडी बनाकर आपस में जुड जातेे हैं फिर शुरू होता है चेटिंग का सिलसिला. हम मानते है कि आपस में बच्चो व बड़ो दोनों के जुडने मेल मिलाप का सोशल मीडिया एक अच्छा माध्यम है लेकिन यह कभी कभी दु:खुद परिणाम भी देता है. यह बताने की जरूरत नहंीं कि देश विदेश में होने वाले बहुत से अपराध में सोशल मीडिया की भागीधारी से ज्यादा होती जा रही है.देश में रोज होने वाले कई किस्म के अपराधों में सोशल मीडिया का नाम कहीं न कहीं से जुड ही जाता है.सूचना और जानकारी का अच्छा तंत्र होने के बावजूद सोशल मीडिया उपयोग के मामलों में बच्चो पर निगरानी रखने की भी जरूरत है.
अमरीका में बंदूक ों का खेल-हिंसा के लिये अस्त्र की खुली छूट जिम्मेदार!
अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका में आतंकवाद का डर भी समा गया है और जो समाज कभी अपने खुलेपन और आजादी के लिए जाना जाता था, उसमें हर व्यक्ति शक्की, चौकन्ना और डरा हुआ है.हाल ही पुलिस के हाथों दो अश्वेतों की मौत पर विरोध-प्रदर्शन चल रहे थे, तभी एक विरोध-प्रदर्शन के दौरान डलास में पांच पुलिसकर्मियों की अंधाधुंध गोलीबारी से मौत ने नए सवाल खड़े कर दिए हैं.यह विरोध-प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा था और तभी कुछ इमारतों की छतों से पुलिस पर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू हो गई.इस गोलीबारी में शामिल एक हमलावर की तो मौत हो गई, लेकिन कुल कितने हमलावर थे, उनकी पहचान क्या है, उनका उद्देश्य क्या था, यह साफ नहीं हुआ है.इस दुखद हत्याकांड से जो पुलिस विरोधी माहौल था, वह उसके प्रति सहानुभूति के माहौल में बदल गया, क्योंकि कई पुलिस वालों ने अपनी जान पर खेलकर आम नागरिकों का बचाव लिया।चाहे दो अश्वेत नागरिकों की पुलिस के हाथों मौत हो, या अब इन पांच पुलिस वालों की हत्या, इनमें एक सूत्र जो समान है, वह अमेरिका में बंदूकों की आम उपस्थिति और उनका इस्तेमाल है। यह एक स्वाभाविक बात है कि अगर समाज में इतनी बंदूकें होंगी, तो उनके इस्तेमाल होने की आशंका भी बढ़ेगीचूंकि हर आदमी के पास बंदूक होने की आशंका होती है, इसलिए पुलिस वाले भी डरे हुए और चौकन्ने होते हैं, जिसकी वजह से जरा सा संदेह होने पर वे गोली चला देते हैं,जैसे एक अश्वेत नौजवान, जो पुलिस की गोली से मारा गया, अपना पहचान पत्र जेब से निकाल रहा था, और पुलिस वाले को लगा कि वह पिस्तौल निकाल रहा है, और उसने गोली चला दी. अमरीका में यह पहली घटना नहीं है अक्सर यहां कोई न कोई सिरफिरा बंदूकों का इ इस्तेमाल कर किसी न किसी को मौत के घाट उतार देता है इसमें जहां स्कूली बच्चों को भी शामिल कर लिया जाता है तो अमरीका के राष्ट्रपति तक ऐसे लोगों की चपेट मे आकर मारे जा चुके हैं. वर्तमान अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा बंदूकों पर नियंत्रण के पक्ष में हैं, लेकिन बंदूकों पर नियंत्रण को संसद की मंजूरी मिलना फिलहाल तो असंभव लगता है.अमेरिकी राइफल्स एसोसिएशन देश की सर्वाधिक मजबूत संस्थाओं में से है और वह बंदूकों पर नियंत्रण के सख्त खिलाफ है.यह देश में एक बड़ी लाबी के रूप में काम करता है. हथियार उद्योग बंदूकों पर नियंत्रण नहीं चाहता और अनुदार राजनेता भी यह मानते हैं कि बंदूकों पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए.उनका तर्क यह है कि बंदूक रखना हर अमेरिकी नागरिक का सांविधानिक अधिकार है. उनका तर्क यह भी है कि अगर बंदूकों पर नियंत्रण होगा, तब भी अपराधियों के पास तो बंदूकें होंगी ही, ऐसे में सिर्फ आम नागरिक बंदूकों से वंचित रह जाएंगे. अमेरिका में भारी और अंधाधुंध गोलीबारी कर सकने वाले हथियार रखने पर कुछ हल्की-फुल्की पाबंदियां हैं, लेकिन उनका कोई खास असर नहीं है. इस गोलीबारी में भी हमलावरों ने खतरनाक किस्म की बंदूकें इस्तेमाल की थीं और इसके पहले भी अमेरिका में जितने बड़े हत्याकांड हुए, उनमें हत्यारों ने बड़ी और खतरनाक किस्म की बंदूकें ही इस्तेमाल की थीं।अमेरिका में इस हत्याकांड के बाद बंदूकों पर नियंत्रण को लेकर फिर से बहस शुरू होगी और उसमें वही जाने-पहचाने तर्क दोहराए जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं है कि बंदूकों पर नियंत्रण की बिल्कुल उम्मीद नहीं है। लगातार हो रहे सर्वेक्षणों से यह साफ दिखाई पड़ता है कि अमेरिका में बंदूकों के खिलाफ जनमत बढ़ता जा रहा है.अमेरिकी यह बात अच्छी तरह से समझने लगे हैं कि बंदूकों की वजह से उनका जीवन सुरक्षित नहीं, बल्कि असुरक्षित हो रहा है और अन्य विकसित देशों के मुकाबले उनके देश में अपराध बहुत ज्यादा हो रहे हैं. जिन घटनाओं की वजह से विरोध-प्रदर्शन हुए और उसके बाद पुलिस वालों की हत्या, दोनों ही अमेरिकी जीवन में बढ़ती हिंसा और संदेह को दिखाते हैं.अगर प्रतिबंध लग भी जाये तो कोई यह नहीं कह सकता कि अमरीका में बंदूकों से होने वाली हत्यायें कम होंगी? भारत में भी आप देख सकते हैं गैर कानूनी हथियार रखने पर कड़ी पाबंदी है लेकिन अवैध हथियारों को तो लोगों के पास जखीरा है. हमारें यहां कड़े कानून के बावजूद हथियार रखने वाले ज्यादा हैं.यह सब पुलिस वालों की नाक के नीचे चलता है.
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