हड़ताल,हड़ताल और हड़ताल! देश की रीड़ तोडऩे वाले इस मूल अधिकार का है कोई इलाज?
हड़ताल से पच्चीस करोड़ रूपये से ज्यादा का नुकसान हुआ,आवश्यक सेवाएं ठप्प रही,औद्योगिक क्षेत्रों में उत्पादन नहीं हुआ, बदंरगाहों पर भी कामकाज ठप्प रहा-चंद लोगों की जिद,चंद लोगोंं की मांग और उसपर सरकार की अडिय़ल नीति पर यह सब कल ही नहीं अक्सर होता आ रहा है-हम आम नागरिकों को कब तक यूं तकलीफे सहनी होंगी? हड़ताल शांतिपूर्ण ढंग से निपट जाये तो ठीक वरना चक्का जाम, तोडफ़ोड़ आगजनी-जिसे जो लोग बनाते हैं उसे वे ही चंद मिनटों में ही उजाड़ देते हैं. यह कौन सी व्यवस्था है? कैसा अधिकार है? क्यों सरकारें ऐसा होने का मौका देती है? । इस बार देश में ट्रेड यूनियनों की हड़ताल के दौरान जो कुछ हुआ वह कुछ ऐसा ही था कि लोग अपने ही देश के दुश्मन बन गये! श्रमिकों की मांगों पर सरकार के कान में जू नहीं रेंगती हम क्यों इतने असंवेदनशील हो जाते हैं? जगह-जगह अनजान लोगों से लडऩे झगडऩे और राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से किसका भला होता है? पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्यप्रदेश जैसे शहरों में जो कुछ हुआ वह शायद यही कह रहा था कि कोई इसे करा रहा है और यह कराने वाला दूर बैठा मजा ले रहा था. कोई मां आटो से बच्चे सहित खींचकर निकाली जा रही थी तो कोई युवा जिसे इंटरव्यू में समय पर पहुंचना था वह तोडफ़ोड करने वाले से गिड़गिड़ा रहा था कि भाई हमें जाने दो समय पर नहीं पहुंचे तो हमें नौकरी नहीं मिलेगी. बहुत से लोग अपना भारी सामान अपने कंधों पर लादकर पैदल ही ऐसे भाग रहे थे कि कहीं तो उन्हें सुरक्षा मिलेगी. अपने पिता की उम्र के लोगों को सड़क पर उनके बेटे कुचल रहे थे, ऊपर से पुलिस की लाठियां ऐसे बरस रही थी जैसे कोई हिंसक जानवर घुस आया हो। इन कलयुगी हड़तालों पर लगाम लगाने की जिम्मेदारी जिन लोगों की है वे अब भी चुप हैं। अड़सठ साल के दौरान होने वाली बुराइयों को दूर करने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता? किसी भी बड़ी घटनाओं पर तत्काल पूर्व से लिखी गई श्रद्वाजंली और श्रद्धासुमन अर्पित करने वालों को क्या यह सब बुरा नहीं लगता? क्योंं वे देश के हित की बात नहीं सोचते? जनता भी तो इसके लिये दोषी है, क्यों नहीं वह अपने नुमाइन्दों से यह सब रोकने की मांग करती? बच्चे, महिलाएं पुरूषों व वृद्धों सभी को ऐसी हड़तालों से परेशानी का सामना करना पड़ता है। अक्सर होने वाली हड़ताल में यही अंजाम होता है कि जनता बुरी तरह परेशानी का सामना करती है और इस परेशानी में एक तरह से व्यवस्था में बैठे लोग उन्हें झोक देते हैं। बैंक कर्मचारी हो या राज्य अथवा सेन्ट्रल की नौकरी करने वाला सभी वर्ग-आम आदमी से अच्छी तनख्वाह पाता है अच्छी जिंदगी बसर करता हैं. एक का समाधान निकलने के कुछ ही दिनों के अंतराल में यह वर्ग हाथ में झंडे- मुंह में नारे लेकर पुन: सड़क पर कूद पड़ता है. सरकार इनसे बातचीत को टालती रहती है और अंत में जब ऐसा हो जाता है जैसा बुधवार को हुआ तो बातचीत कर दोनों गले मिलकर एक हो जाते हैं। सारा खेल आम जनता को दो पाटों की चक्की में पीसने के सिवा कुछ नहीं- इसे अब समझने की जरूरत है. क्यों हड़ताल की नौबत आती है? क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था की जाती है कि देश के लिये काम करने वाला हर व्यक्ति सेना-पुलिस के अनुशासन की तरह बंधने बाध्य हो। अगर वह इसके लायक नहीं है तो दूसरे नौजवान को मौका मिले-कितने ही ऐसे नौजवान हैं जो आज सारी योग्यता होने के बाद भी नौकरी की तलाश में घूम रहे हैं। जब तक कठोर व्यवस्था कायम नहीं होगी यह मुसीबत सरकार के गले में लटकी रहेगी तथा आम जनता पिसती रहेगी.
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