थानों में पिटाई...यह तो होता आ रहा है!
थानों में पुलिस पिटाई कोई नई बात नहीं है-यहां जात पात,ऊंच-नीच या धर्म देखकर कार्रवाही नहीं होती बल्कि सबकुछ होता है पुलिस या खाकी की दबंगता के नाम पर...चोरी,लूट,अपहरण,हत्या जैसे मामले में थर्ड डिग्री का उपयोग जहां आम बात है वहीं पालिटिकल बदला लेने और पैसे देकर पिटाई कराने के भी कई उदाहरण हैं. इसके पीछे बहुत हद तक हमारी वर्तमान व्यवस्था स्वंय जिम्मेदार हैं जिसने थानों को कई मायनों में छुट्टा छोड़ रखा है जिसपर अक्सर किसी का कोई नियंत्रण ही नहीं रहता. बड़े अफसर कभी कबार दूर दराज के थानों में पहुंच गये तो ठीक वरना सारा थाना वहां के हवलदार और सिपाहियों के भरोसे चलता हैॅ. छत्तीसगढ़ के जांजगीर में एक शिक्षक के बेटे सतीश के साथ जो कुछ हुआ वह कई थानों में आम लोगों के साथ होता है. कुछ लोग झेल जाते हैं और कुछ यूं ही सतीश की तरह प्राण त्याग देते हैं. सन् 2003 में पूरे पुलिस महकमें में अंबरीश शर्मा कांड की चर्चा रही.टीआई रेंक के इस अधिकारी और उसके साथियों की पिटाई से बलदाऊ कौशिक की पुलिस कस्टड़ी में मौत हो गई. अम्बरीश और साथी पुलिस वालों पर हत्या का मुकदमा चला.अतिरिक्त सेशन जज दीपक तिवारी की अदालत से अम्बरीश शर्मा को दस साल का कठोर कारावास और पैसठ हजार रूपये जुर्माना की सजा हुई अम्बरीश के सहयोगी सब इंस्पेक्टर राजेश पाण्डे को पांच साल का कठोर कारावास व बीस हजार रूपये जुर्माना की सजा सुनाई गई.इतना ही नहीं इस मामले में थाने के सात अन्य को भी दो दो साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई.कवर्धा थाना के अंतर्गत 22 मई 2002 को पुलिस कस्टडी में बलदाऊ की मौत हुई थी. इस घटना में पुलिस को सजा ने संपूर्ण पुलिस महकमें में सनसनी फैला दी. थानों में मारपीट की घटनाओं पर अंकुश सा लग गया. पुलिस का काम थर्ड डिग्री मेथड़ के बगैर संभव ही नहीं है चूंकि अपराधी कभी प्यार से पूछो तो बताता नहीं.ऐसे में पुलिस के लिये काम इतना कठिन हो गया कि इसके चलते कई मामलों में अपराधी ही पुलिस पर हावी होने लगे. बहरहाल समय के साथ सब पिछली घटनाओं को भूल जाते हैं, थाने फिर गर्म होने लगे. पुलिस के लिये यह एक झटका देने वाली बात है कि उन्हें जो काम समझबूज से निपटाना चाहिये उनमें से निनयानवे प्रतिशत में वे बल का प्रयोग करते हैं यह काम उन लोगों पर कतई नहीं करते जो पैसे वाले हैं, जो रसूखदार है और जो किसी न किसी प्रभावशाली के रिश्तेदार हैं. ऐसे लोगों को अपना शिकार बनाया जाता है जिसका कोई नहीं .छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले में भी शायद कु छ ऐसा ही हुआ.मुलमुला थाने में सतीश नोरंगे जो एक शिक्षक का बेटा हैं कथित रूप से सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में थाने लाया गया और पुलिस कस्टडी में मौत हो गई इस मामले में एक एसआई समेत चार पुलिसवालों पर हत्या का मामला दर्ज कर लिया गया है इसके अलावा सरकार ने न्यायिक जांच बिठा दी है. टीआई समेत चार पुलिसकर्मियों के खिलाफ धारा 302 के अलावा थाने के स्टॉफ पर एससी-एसटी एक्ट के तहत भी मामला दर्ज किया गया है.छत्तीसगढ़ में पुलिस प्रणाली को फिर से दहला देने वाली इस घटना पर अब सरकार कई बिन्दुओं पर जांच करा रही है. हम इस बात का स्वागत करते हैं कि सरकार ने समय पर संज्ञान लिया और न्यायिक जांच के आदेश दिये तथा पीडि़त परिवार को छह लाख का मुआवजा और मृतक की पत्नी को नौकरी देने का फैसला किया लेकिन अब भी कई प्रश्न पुलिस की प्रणाली पर यूं ही सतह पर है कि संदेह या पूछताछ के नाम पर क्या किसी भी व्यक्ति को थाने में बुलाने की प्रथा उचित है? क्या पुलिस जब किसी ऐसे संदिग्ध व्यक्ति को थाने बुलाकर उससे पूछताछ करती है तो उसके पास क्या आधार होता है कि उसने कोई ऐसा कृत्य किया होगा? अगर पूछना ही है तो उसके पास उसके किसी रिश्तेदार को भी बिठाने की क्यों नहीं व्यवस्था की जाती? संदेही के साथ अपराधी जैसा व्यवहार क्यों होता है? उससे सच उगलवाने के लिये पिटाई की जाती है. इस पिटाई का उस समय खामियाजा क्या है जब यह पता चलता है कि उसका दूर दूर तक इससे कोई संबन्ध नहीं है? क्या सरकारी काम में बाधा डालने जैसे अपराध की सजा थाने में पिटाई है? या उसे अदालत में पेश कर न्याय का इंतजार करना चाहिये? अक्सर पुलिस की कई मामलों में पूछताछ का आधार कुछ ऐसा ही होता आया है. पक्के सबूत के बगैर किसी को भी यूं ही तंग किया जाना एक आदत बन गई है. इससे पुलिस के प्रति लोगों का विश्वास तो घटता ही है और कवर्धा जांजगीर जैसी घटनाएं जन्म लेती है. पुलिस पर कानून का डंडा चलता है तथा अदालती कार्रवाही होती है तो पुलिस में काम करने वाले अन्य स्वच्छ छबि वाले लोगों के लिये भी काम करना मुश्किल हो जाता है=कहने का तात्पर्य यही कि उनका नैतिक बल गिर जाता है तथा संपूर्ण व्यवस्था को कोसने मजबूर हो जाते हैं. वैसे जांजगीर के पूरे मामले में सबूत स्पष्ट तौर पर पुलिस के खिलाफ जाता है चूूंकि मृतक के शरीर पर पड़े निशान पूरी तरह यह साबित कर रहे हैं कि सतीश के साथ काफी क्रूरता से पुलिस पेश आई थीॅ.चिकित्सकों की कलम पर भी संदेह की लकीरे हैं1
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