अब धरती पर अत्याचार छोड़ आकाश की ओर बढों....! वनों के मामले में हमारी पोजीशन दुनिया में दसवें नम्बर पर है, लेकिन भारत में जिस तेजी से वन कट रहे हैं उससे यह नम्बर कम होने की जगह भविष्य में कई आगे निकल जाये तो आश्चर्य नहीं. वनों के बगैर पर्यावरण नहीं और वन काटे बगैर विकास नहीं. वन नहीं तो कुछ भी नहीं, पीने के पानी से लेकर निस्तारी के पानी तक का संकट पैदा हो जाये तो आश्चर्य नहीं. सरकारें विकास पर तुली हुई है. वन काटकर विकास करना उनके लिये अनिवार्य है. सरकार को कहीं रेल लाइने बिछाना है तो कहीं बांध बनवाना है तो कहीं सड़के निकलवाना है. कई वनों को काटकर वहां कांक्रीट के जंगल खड़े करना ह,ै तो कई जंगल क्षेत्र में कोयले और अन्य खनिज ससंाधनों का भंडार भरा पड़ा है, उन्हें खोदकर निकालना है. विकास की बात जैसे जैसे आगे बढ़ती जायेगी वनों और जंगली जानवरों की मुसीबतें और बढ़ती जायेगी. आखिर क्या किया जाये कि वन कम से कम कटे अर्थात सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे?भारत सरकार का पर्यावरण विभाग, वन विभाग की परमीशन के बगैर राज्य सरकारें वनों के एक भी वृक्ष पर हाथ नहीं लगा सकती. कई राज्यों में तो किसी वृक्ष को काटने की सजा भी कठोर है यहां तक कि निजी भूमि पर लगे वृक्षों को भी नहीं काटा जा सकता. इसे भी काटने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है.कहने का तात्पर्य सरकार अपनी तरफ से भी वनों की रक्षा के लिये कटिबद्व है लेकिन मजबूरियां ऐसी हैं कि सरकार को बाध्य होकर कुछ निर्णय लेने पड़ते हैं जिसके चलते वृक्षों व वनों का सफाया करना अनिवार्य हो जाता है. बस्तर में बोधघाट परियोजना का ही उदाहरण ले- वृक्षों की भारी कटाई,कई गांवों के डुबान की स्थिति इन सबके चलते आज तक यह परियोजना अस्तित्व में नहीं आई. अब विकास की दौड़ मेंं सरकार के लिये यह मजबूरी है कि वह छत्तीसगढ़ के इस जंगल से आछादित क्षेत्र को नई दुनिया से जोड़ने के लिये यह यातायात की आधुनिकतम सुविधाएं मुहैया करायें.इसी कड़ी में राजधानी रायपुर से बस्तर तक रेल लाइन बिछाने का कार्य हाथ मेें लिया जा रहा र्है इस कड़ी में कई पहाड़, कई वृूक्ष उजडेंगें.तभी जाकर रेललाइन बिछेगी. यह बस्तर सहित पूरे देश की आवश्यकता है. इस परियोजना को अगर हम दूसरे नजरियें से देखें तो यह कुछ आसान है, जिसमें आम लोगों को सुविधा होगी, वन नहीं कटेगें पहाड़ों को नहीं हटाना पड़ेगा और सुविधाएं भी लोगों को मिलेंगी. सरकार रायपुर से बस्तर की दूरी जो करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर तक है धरती को छोडकर मेट्रो की तर्ज पर आकाश की तरफ धरती से ऊपर ट्रेेनें चलाये व सड़को को भी ऊपर ही ऊपर विकसित करें. विश्व के कई विकसित देशों में यह व्यवस्था है जिसके चलते धरती को छुए बगैर सारा यातायात चलता रहता है और किसी को जाम की स्थिति का भी सामना नहीं करना पड़ता. खर्चा इसमें भी होगा उसमें भी होगा लेकिन काम को चरण बद्व शुरू करने से यह काम आसान और कम खर्चीला होगा. अगर रायपुर से धमतरी तक या धमतरी से ये जगदलपुर तक इस योजना पर शुरूआती दौर पर काम किया जाय तो इसके फायदे नजर आने लगेंगे. सपना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी कुछ ऐसा ही है. वे बुलेट ट्रेन का सपना देख रहे जो सत्तर हजार करोड़ की तो सिर्फ एक बुलेट ट्रेन की है लेकिन यह योजना जो धरती से आकाश की ओर जाती है तो यह शायद उससे कम खर्च में पूरी हो सकती है. यातायात की गंभीर समस्या भविष्य में और पेचीदा होगी इसके लिये हम अब आकाश की ओर ताकना पड़ेगा ही.
वनों के मामले में हमारी पोजीशन दुनिया में दसवें नम्बर पर है, लेकिन भारत में जिस तेजी से वन कट रहे हैं उससे यह नम्बर कम होने की जगह भविष्य में कई आगे निकल जाये तो आश्चर्य नहीं. वनों के बगैर पर्यावरण नहीं और वन काटे बगैर विकास नहीं. वन नहीं तो कुछ भी नहीं, पीने के पानी से लेकर निस्तारी के पानी तक का संकट पैदा हो जाये तो आश्चर्य नहीं. सरकारें विकास पर तुली हुई है. वन काटकर विकास करना उनके लिये अनिवार्य है. सरकार को कहीं रेल लाइने बिछाना है तो कहीं बांध बनवाना है तो कहीं सड़के निकलवाना है. कई वनों को काटकर वहां कांक्रीट के जंगल खड़े करना ह,ै तो कई जंगल क्षेत्र में कोयले और अन्य खनिज ससंाधनों का भंडार भरा पड़ा है, उन्हें खोदकर निकालना है. विकास की बात जैसे जैसे आगे बढ़ती जायेगी वनों और जंगली जानवरों की मुसीबतें और बढ़ती जायेगी. आखिर क्या किया जाये कि वन कम से कम कटे अर्थात सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे?भारत सरकार का पर्यावरण विभाग, वन विभाग की परमीशन के बगैर राज्य सरकारें वनों के एक भी वृक्ष पर हाथ नहीं लगा सकती. कई राज्यों में तो किसी वृक्ष को काटने की सजा भी कठोर है यहां तक कि निजी भूमि पर लगे वृक्षों को भी नहीं काटा जा सकता. इसे भी काटने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है.कहने का तात्पर्य सरकार अपनी तरफ से भी वनों की रक्षा के लिये कटिबद्व है लेकिन मजबूरियां ऐसी हैं कि सरकार को बाध्य होकर कुछ निर्णय लेने पड़ते हैं जिसके चलते वृक्षों व वनों का सफाया करना अनिवार्य हो जाता है. बस्तर में बोधघाट परियोजना का ही उदाहरण ले- वृक्षों की भारी कटाई,कई गांवों के डुबान की स्थिति इन सबके चलते आज तक यह परियोजना अस्तित्व में नहीं आई. अब विकास की दौड़ मेंं सरकार के लिये यह मजबूरी है कि वह छत्तीसगढ़ के इस जंगल से आछादित क्षेत्र को नई दुनिया से जोड़ने के लिये यह यातायात की आधुनिकतम सुविधाएं मुहैया करायें.इसी कड़ी में राजधानी रायपुर से बस्तर तक रेल लाइन बिछाने का कार्य हाथ
मेें लिया जा रहा र्है इस कड़ी में कई पहाड़, कई वृूक्ष उजडेंगें.तभी जाकर रेललाइन बिछेगी. यह बस्तर सहित पूरे देश की आवश्यकता है. इस परियोजना को अगर हम दूसरे नजरियें से देखें तो यह कुछ आसान है, जिसमें आम लोगों को सुविधा होगी, वन नहीं कटेगें पहाड़ों को नहीं हटाना पड़ेगा और सुविधाएं भी लोगों को मिलेंगी. सरकार रायपुर से बस्तर की दूरी जो करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर तक है धरती को छोडकर मेट्रो की तर्ज पर आकाश की तरफ धरती से ऊपर ट्रेेनें चलाये व सड़को को भी ऊपर ही ऊपर विकसित करें. विश्व के कई विकसित देशों में यह व्यवस्था है जिसके चलते धरती को छुए बगैर सारा यातायात चलता रहता है और किसी को जाम की स्थिति का भी सामना नहीं करना पड़ता. खर्चा इसमें भी होगा उसमें भी होगा लेकिन काम को चरण बद्व शुरू करने से यह काम आसान और कम खर्चीला होगा. अगर रायपुर से धमतरी तक या धमतरी से ये जगदलपुर तक इस योजना पर शुरूआती दौर पर काम किया जाय तो इसके फायदे नजर आने लगेंगे. सपना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी कुछ ऐसा ही है. वे बुलेट ट्रेन का सपना देख रहे जो सत्तर हजार करोड़ की तो सिर्फ एक बुलेट ट्रेन की है लेकिन यह योजना जो धरती से आकाश की ओर जाती है तो यह शायद उससे कम खर्च में पूरी हो सकती है. यातायात की गंभीर समस्या भविष्य में और पेचीदा होगी इसके लिये हम अब आकाश की ओर ताकना पड़ेगा ही.
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