यह अकेले फोर्टिस अस्पताल का मामला नहीं!
गुडग़ांव के फोर्टिस हॉस्पिटल में डेंगू से पीडित एक सात साल की बच्ची को पन्द्रह दिनों तक भर्ती करके उसका इलाज किया गया और उसके बाद उसकी मौत हो गई इसके बाद परिवार पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. बच्ची को पन्द्रह दिन तक इलाज करने के नाम पर परिवार पर करीब अठारह लाख रूपये का बिल थमा दिया.यह सुनकर ही एक आदमी का कलेजा सूख जाता है किन्तु अगर बच्ची पर इतना पैसा खर्च करने के बाद ठीक हो जाती तो शायद किसी को इतना ऐतराज नहीं होता. इलाज के बाद परिवार खुशी खुशी बच्ची को अपने घर ले जाते लेकिन इलाज के बाद भी इतनी रकम की वसूली किसे रास आयेगी?. यह तो बच्ची के पिता जयंत सिंह के दोस्त का टिवटर एकाउंट था जिसने इस पूरे मामले को देश के बड़े स्वास्थ्य मंत्री के कानो तक पहुुंचा दिया वरना अस्पतालों में होने वाली इस तरह की बड़ी बड़ी घटनाओं की तरह यह भी यूं ही दब जाता. जो बात इस पूरे मामले में सामने आई है उसके अनुसार जयंत सिंह की 7 साल की बेटी डेंगू से पीडि़त थी और वह इलाज के लिए 15 दिन तक फोर्टिस हॉस्पिटल में भर्ती रही. हॉस्पिटल ने इसके लिए उन्हें 18 लाख का बिल थमा दिया। इसमें 2700 दस्ताने और 660 सिरिंज भी शामिल थीं- आखिर में बच्ची की मौत हो गई. बच्ची की मां का कहना है कि अस्पताल वालों ने बच्ची के कफन का तक सात सौ रूपये वसूल कर लिया. फोर्टिस हॉस्पिटल ने सफाई दी कि बच्ची के इलाज में सभी स्टैंटर्ड मेडिकल प्रोटोकॉल और गाइडलाइंस को ध्यान में रखा गया.. डेंगू से पीडि़त बच्ची को गंभीर हालत में हॉस्पिटल लाया गया था बाद में उसे डेंगू शॉक सिंड्रोम हो गया और प्लेटलेट्स गिरते चले गए. उसे 48 घंटे तक वेंटिलेटर सपोर्टर पर भी रखना पड़ा. अस्पताल दावा कर रहा है कि जो राशि आई है यह बच्ची के इलाज पर खर्च का हिसाब है किन्तु क्या यह जायज है? क्या अस्पतालों में इतनी भी संवेदना दिखाने की हिम्मत नहीं रह जाती कि वह किसी की मौत के बाद उसकी लाश पर भी दाम लगाये.यह अकेले फोर्टिस अस्पताल का मामला नहीं है देश के अनेक क्षेत्रों मे इस तरह की घटनाएं आम हो गई है जिसके चलते मानवता शर्म से पानी पानी हो जाती है.उड़ीसा के अस्पतालों में मरीज की मौत के बाद उसे परिजनों ने कंधे पर लादकर कई किलोमीटर पैदल चलकर अंतिम क्रिया की है.तेलंगाना में भी ऐसा ही एक मामला सामने आया जिसमें बच्चे को खाट पर लिटाकर अस्पताल से घर तक लायें- सारी सुविधाओं से लैस होने वाले अस्पतालों का जब यह हाल है तो अन्य अस्पताल किस तरह काम करते होंगे इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.कई ऐसे किस्से हैं जो यह साबित कर देेते हैं कि हमारे स्वास्थ्य केन्दों में कितनी भर्राशाही और अनियमितता का दौर चल रहा है यह इसी से पता चल जाता है कि .अस्पताल के आईसीयू मे कोई भी बाहरी व्यक्ति बेधड़क घुस जाता है या गार्ड को पैसे खिलाकर अंदर प्रवेश कर जाता है.नेताओं की तो बात ही अलग है वे जूते पहनकर भी अपने चमचों के साथ आईसीयू में प्रवेश कर जाते हैं. अस्पतालों में मरीज की मौत के बाद परिवार के कृंदन का सीन ही यह कहने के लिये काफी होता है कि वह किस मानसिक अवस्था में है लेकिन अस्पताल प्रबंधन की कोई संवेदना यहां कहीं नजर नहीं आती.परिजन जहां भारी मानसिक यातना में डूबा रहता है तभी उसे लाश को ले जाने के लिये पैसे का दबाव अस्पताल से पड़ता है. अस्पताल से लाश ले जाना है तो पहले इलाज का पूरा पैसा जमा कराओ वरना लाश पड़ी रहेगी. इस तरह की व्यवस्था प्राय: अस्पतालों में दिखती है जहां उऊपर से पूरा तामझाम तो रहता है किन्तु हकीकत कुछ और ही होती है. दावा गरीब मरीजों के इलाज का भी किया जाता है लेकिन ऐसे अस्पतालों मे मरीजो की मौत के बाद उनका असल चेहरा साफ दिखाई दे जाता है. सरकार ने अस्पतालों में गरीबो ंके इलाज के लिये कई किस्म की सुविधाओं का ऐलान किया है कई लागू भी हो चुकी है किन्तु मरीजो की अस्पताल में जहां तक मरीज के इलाज और उसके स्वस्थ होने की बात है उसमें अगर अस्पताल मरीज से जायज पैसा वसूल करें तो इसपर किसी को ऐतराज नहीं किन्तु किसी की भी मौत के बाद परिजनों पर बिलों का पहाड़ गिरा दे तो इसे कैसे सहन किया जाये? सरकार ने अस्पतालों मे परिजनों द्वारा चिकित्सकों से परिजनों के दुव्र्यवहार और मारपीट पर संज्ञान लिया है तथा उसपर प्रतिबंध लगाने कड़े कदम उठाये है लेकिन एक मरीज की मौत के बाद होने वाली बड़ी वसूली को रोकने का कोई इंतजाम अब तक नहीं किया.हम मानते हैं कि एक अस्पताल चलाने के लिये खर्च भी बहुत करना पड़ता है किन्तु इसका यह भी मतलब नहीं होना चाहिये कि वह इतना भी कम नहीं कमाता कि उसका पूरा खर्च नहीं निकलता इसलिये यह जरूरी होना चाहिये कि अस्पताल में इलाज के दौरान मरीज की मृत्यु होती है तो उसकी सारी फीस माफ कर दी जाये.यह अस्पताल के लिये कोई बड़ी बात नहीं किन्तु इलाज कराने वाले परिवार के लिये यह एक बहुत बड़ा बोझ होता है.
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