हम बस सत्तर सालों से 'आजाद हैं!


लोकतंत्र का बड़ा पर्व चुनाव अब उस मुकाम पर पहुंच गया है जहां आम आदमी के मुकाबले ज्यादातर पैसे वालों व बाहुबली की भागीदारी हो रही है. गरीब, मजदूर और किसान की कोई पूछ नहीं होती, क्योंकि इस पर्व में सिर्फ पैसा बोलता है. अगर अवैध धन की बात छोड़ भी दें तो आधिकारिक रूप से भी चुनाव में उम्मीदवारों को 28 लाख रुपये तक खर्च करने की छूट दी गई है. समानता -सर्वकल्याण जैसी संकल्पना लोकतंत्र की मूल भावना में निहित हैं किन्तु चुनाव के दौरान आम आदमी जिसके मतों से चुनकर सरकार का अस्तित्व कायम होता है वह किनारे लगकर सिर्फ नारेबाजी करने और लाइन में लगकर अपने संविधान प्रदत्त अधिकार का उपयोग करने का साधन मात्र रह जाता है. पूरे पांच साल तक चुनकर भेजने वालों में से बहुत लोग जहां जनता के पैसे से सुख सुविधाएं भेागते हैं और बेचारा वह व्यक्ति जो वोट देने के बाद उस किसान की तरह हो जाता है जो कभी  बारिश न होने से आसमान की तरफ ताक लगाये बैठा रहता है. चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर कोई सवाल नहीं उठाते हुए हम यह तो इंगित करना चाहते हैं कि चुनाव में खर्च की सीमा तय करते समय उसे यह भी ध्यान में रखना चाहिए था कि क्या एक आदमी जो वोट देने का अधिकार रखता है  वह चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च सीमा 28 लाख रूपये तो क्या कभी एक लाख रूपये भी जुटाकर चुनाव लडऩे की ताकत रखता है? असल में हम आम लोग चुनाव से दूर कर दिये गये हैं. हमारी उन लोगों के सामने औकात ही क्या है जो अट्ठाईस लाख रूपये चुनाव खर्च करने की ताकत रखते हैं.असल बात तो यह है कि इस देश में गरीब हमेशा याचक और अमीर हमेशा स्वामी के अवतार में ही रह रहा है क्योंकि 28 लाख की तो क्या वर्तमान स्थिति में एक गरीब व मध्यम वर्ग का व्यक्ति जिस पर जीएसटी सहित सैकड़ों व्यक्तिगत जिम्मेदारियां हैं वह भी एक से दो लाख रूपये की खाई कभी पाट नहीं सकता. हम बस यही कह सकते हैं कि  70 सालों से आजाद हैं लेकिन, सही अर्थों में आजादी तो  उन लोगों के साथ है जो धनवान है, जो बाहुबली हैं जो प्रभावशाली हैं दूसरी तरफ वह  तबका है जो भूखा पेट सोने को विवश है, जबकि खुद को जनता का सेवक कहने वाले हजारों नेता एयर कंडीशनर घरों और गाडिय़ों में चलते हैंजबकि दूसरी तरफ लोकतंत्र की मालिक जनता को फुटपाथ भी नसीब नहीं हो रही हैं- जब इन निर्वाचित महानुभावों का काफिला सड़कों से गुजरता हैं तो हमें उसी तरह मजबूरन किनारे खड़़ा कर दिया जाता  है जैसे किसी समय राजा महाराजाओं की सवारी निकलते समय लोग हाथ जोड़े किनारे खड़ा करवा दिया जाता है फर्क बस इतना है कि तब लोग सिर झुकाये  खड़े होते थे लेकिन अब इनके स्वागत में नारेबाजी करते हैं. गरीब और मध्यम वर्ग सरकार के आंकड़ों में पैसे में बढ़ौत्तरी वाला बताया जा रहा  है किन्तु हकीकत आज यह है कि सियासतदानों की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और देश की गरीब जनता थोड़े से पैसे के लिये आत्महत्या का रारस्ता अख्तियार कर रही है. क्या यही आजादी है?अभी इसी महीेने गुजरात की 182 तथा हिमाचल प्रदेश की 68 सीटों का चुनाव है इसका टोटल 250 होता है फिर प्रत्येक सीट पर उम्मीदवारों का औसतन खर्च एक करोड़ रुपये ही लें, तो कुल खर्च ढाई अरब रुपये होता हैं. इतनी बड़ी रकम सुनने में हम जैसे लोगों के लिये तिलिस्म से कम नहीं -इस चकाचौंध में लोगों के जायज़ मुद्दे हमेशा दबते चले जाते हैं.देश के एक हिस्से में अरबों का खेल खेला जा रहा हो और दूसरे हिस्से में भोजन के अभाव व कर्ज में डूबकर लोग दम तोड़ रहे हों, तो इसे क्या कहेंगे? अभी दो दिन पहले ही उड़ीसा में छै किसानों ने एक साथ खुदकुशी कर ली कारण सब जानते  हैं. हम कितने आजाद हैं? लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक चुनाव अरबों रूपये फूंक देता है और इसकी वसूली हम जैसे साधारण लोगों की जेब काटकर होती है. चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय जैसी संवैधानिक व निष्पक्ष संस्थाओं के लिये अब यह समय सोचने, विचारने और निर्णय लेने का है कि वैभव और विलासिता से भरी इस व्यवस्था की जगह किस नई व्यवस्था का निर्माण करें जिसमें प्रत्येक नागरिक को समान रूप से अवसर मिले. आज कहने को सभी समान हैं, लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है.

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