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अक्तूबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कोई दलील नहीं, कोई सुनवाई नहीं- फैसला ऑन द स्पॉट!

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हमारे आसपास होने वाली कुछ घटनाओं को सुनकर या देखकर हमारा सिर शर्म से झुक जाता है और उस कानून पर भी तरस आता है जिसके रहते मनुष्यों या जानवरों पर जुर्म करने वालों पर कार्रवाई नहीं होती. हाल ही बिहार के अजासैरा जिले की ग्राम पंचायत में एक व्यक्ति जिसका नाम महेश ठाकुर है को कथित रूप से बिना अनुमति के घर में घुसकर आने के लिए इतनी बड़ी सजा दी कि वह किसी के मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा, जिसने भी सुना वह दहल उठा. वह दिन दीवाली का था और उस दिन पूरा देश खुशियां मना रहा था तथा भगवान राम के अयोघ्या वापसी की खुशी में पटाखें फोड़ रहा था तभी नालंदा पंचायत के फरमान पर एक शख्स लोगों के थूक चाटकर अपनी सजा पूरी कर रहा था। कसूर यह था कि दिवाली के मौके पर वह बिना दरवाजा खटखटाए सुरेन्द्र यादव के घर के अंदर आ गया। उसे यह नागवार गुजरा और बुरा भला कहते हुए महेश ठाकुर नामक शख्स को मुखिया दयानंद मांझी के घर ले गया जहां सरेआम गांववालों के सामने बेइज्जत तो किया गया साथ ही वहां मौजूद मुखिया ने सजा सुनाकर उसे अपना थूक चाटने के लिए मजबूर किया इतने पर भी यह सजा पूरी नहीं हुई, महिलाओं ने उसे चप्पलें मारीं। पीडि़त व

ढोल बजा नहीं,शोर गूंजने लगा!

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ढोल बजा नहीं,शोर गूंजने लगा! जी हां कुछ ऐसी ही स्थिति है गुजरात चुनाव की.चुनाव आयोग ने अभी गुजरात में चुनाव तिथियों का ऐलान नहीं किया है किन्तु इस बीच गुजरात को फतह करने  जोड़तोड़ शुरू हो गई है. जनता जिसे सबकुछ करना है वह शांत व मूक दर्शक है लेकिन सत्ता पर काबिज होने के लिये बेताब रणबाकुरे कोइ्र्र भी खेल इस दौरान  खेलने बेताब हैं. यह कोशिश वास्तव में  दिलचस्प है. गुजरात की सत्ता से कई सालों से बेदखल कांग्रेस को जहां इस बार गुजरात से काफी उम्मीद है वहीं उसके शुरूआती दाव पैच भाजपा को बैचेन कर रही है. प्रधानमंत्री के गृह राज्य में होने वाले इस चुनाव में उनकी दिलचस्पी स्वाभाविक है वहंी उनकी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों की प्रतिष्ठा भी दाव पर लगी हुई है.इससे पूर्व यूपी में चुनाव हो चुका है जहां कांग्रेस व समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा था. बात यहां कुछ उलटी ही है. वह समय लहर का था लेकिन अब काम देखा जाने वाला भी हो सकता है.वोटरों को रिझाने सारे प्रयास जहां तेज हैं वहीं खीचतान का सिलसिला भी जारी है. मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से गुजरात के व्यापारियों को घाटा

भारत में 19 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सोते हैं

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 देश में चार में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।   58 फीसदी बच्चों की ग्रोथ 2 साल से कम उम्र में रुक जाती है  ...और दूसरी और वीवीआईपी संस्कृति में जीने वाला एक पूरा कुनबा भी है जो हीरे और सोने से लदा है फिर भी खुश नहीं! इतनी सुविधाएं कि आंखे फटी रह जाये ! हम भले ही अपने आपको विश्व के बड़े देशों के समकक्ष स्थापित करें लेकिन हकीकत हमही जानते हैं कि हमारे देश का एक बड़ा समुदाय नंगा, भूखा और बहुत गरीब है जबकि मुट्टीभर लोगों के हाथ में बहुत कुछ आ गया है और वह देश की जनता को उंगलियों पर नचाने की ताकत भी रखता हैं. हां हम जिस प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं उसमें सत्तासीन कई लोगों की सपंत्ति से दूसरे देशों की तुलना करेंं तो यह उनसे कई गुना है जबकि जिनकी मदद से वे इस मुकाम पर पहुंचे हैं वे उनके सामने एकदम बौने हैं. आजादी के बाद के वर्षो में ऐसे लोगों की संपत्ति मेंं जो इजाफा हुआ है वह आश्चर्यजनक ,अविश्वसनीय है शायद यही कारण है कि देश में राजनीतिक दलों में घुसने और कुर्सी पाने की होड़ सी मची हुई है.इसमें भी वे लोग हैं जिसके पास अकूट संपत्ति है या जिनके पास मैन पावर है.म

आखिर हत्यारें कौन? क्यों मिली निर्दोष को सजा

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यह विचित्र बात है कि नौ साल बाद भी हमारे देश की जांच एजेंसिया यह पता नहीं लगा पाई कि बाहर से  बंद बंगले में रह रहे चार लोगों के बीच रह रहे दो व्यक्तियों की सनसनीखेज ढंग से की गई हत्या का  असली मुलजिम कौन हैं.सवाल यह उठता है कि क्या यह मामला भी अब उन पुराने मामलों की तरह गुमनामी में चला जायेगा जिसमें वास्तविक हत्यारों का पता लगाने या साक्ष्य प्रस्तुत करने में एजेंसियां विफल हो गई. कई मामलों में तो वास्तविक हत्यारें छुट्टा घूम रहे होते हैं जबकि डमी या निर्दोष पेश किये गये साक्ष्यों के आधार पर सजा भुगत रहे होते हैं.आरूषी-हेमलाल हत्याकांड में निचली अदालत ने आरूषी के माता पिता को उम्र कैद की सजा सुनाई थी जिसके विरूद्व उनके वकीलों ने हाईकोर्ट  में अपील की और हाईकोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में उन्हें बरी कर दिया. इस दौरान जो मानसिक व शारीरिक यातानांए इस परिवार को झेलनी पड़ी उसका जिम्मेदार कौन है? दूसरा प्रशन यह कि अगर आरूषी और हेमलाल की हत्या इन दोनों ने नहीं की तो किसने की? यह अब कभी पता चल पायेगा? कई ऐसे प्रश्न इस फैसले के बाद लोगों के दिमाग में कौद रहे हैं और पुलिस की जांच प्रणाली पर भी उंग

जनता के मूड पर निर्भर रहेगा अब का चुनाव!

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जनता के मूड पर निर्भर रहेगा अब का चुनाव! इस साल के आखिर तक होने वाला गुजरात विधानसभा का चुनाव यह बतायेगा कि अगले चुनावों में देश की दिशा क्या होगी? क्या भाजपा अगले सालों में सता पर बनी रहेगी? क्या अहमद पटेल की जीत के बाद गुजरात में माहौल बदला है? कांग्रेस इसी उत्साह से मैदान में उतरेगी कि उसे यहां  फिर सत्ता में आसीन होने का मौका मिलेगा. भाजपा- कांग्र्र्रेस के बीच जहां टक्कर होगी वहीं  तीसरी पार्टी के रूप में आम आदमी भी मैदान में उतरकर आगे के लिये अपनी रणनीति व किस्मत दोनो आजमा सकती है. गुजरात विधानसभा चुनाव जहां भाजपा के परफोरर्मेंस की नापझोक करेगा वहीं कांग्रेस को यह संदेश देगा कि उसकी किस्मत में आगे क्या लिखा है. असल में विधानसभा का यह चुनाव न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के लिए भी यह प्रतिष्ठा का प्रश्न है. दोनों सियासी महारथी इसी राज्य से आते हैं, इसलिए इन्हीं दोनों के कंधों पर गुजरात चुनाव का दारोमदार भी टिका है.वैसे गुजरात का माहौल पिछले वर्षो में बदला है. पटेल आंदोलन को ठीक से हैन्डिल न कर पाने के कारण जहां आन

दंडधारी, चौकीदार, दरोगा से 'पुुलिस तक का सफर कितना सफल?

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प्राचीन भारत का स्थानीय शासन मुख्यत:  ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था गाँव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित किए जाते थे. इसकी सहायता और निर्देशन ग्राम के वयोवृद्ध करते थे. पुलिस व्यवस्था के विकासक्रम में उस काल के दंडधारी को वर्तमान काल के पुलिस जन के समकक्ष माना जा सकता है यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे वरन् इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने में से चुन लेते थे. ग्रामिणों के ऊपर 5-10 गाँवों की व्यवस्था के लिए गोप एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए स्थानिक नामक अधिकारी होते थे.इन निर्वाचित ग्रामीण अधिकारियों द्वारा अपराधों की रोकथाम का कार्य सुचारु रूप से होता था और उनके संरक्षण में जनता अपने व्यापार उद्योग-निर्भय होकर करती थी.हिन्दू काल के बाद सल्तनत और मुगल काल में भी ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की परंपरा अक्षुण्ण रही.मुगल काल में ग्राम के मुखिया मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे और निर्माण चौकीदारों की सहायता से ग्राम में शांति की व्यवस्था स्थापित की जाती थी. चौक

स्वच्छ भारत अभियान के तीन साल ...!

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स्वच्छ भारत अभियान के तीन साल ...! भले ही हम दावा करें कि स्वच्छता के मामले में हमने बहुत कुछ कर लिया है किन्तु हकीकत यही है कि अभी हमें बहुत कुछ करना है.आज सुबह जब मैं मार्निंग वाक पर निकला तो मुझे इस बात का एहसास हुआ कि इतना सब कुछ होने के बाद भी लोग जागरूक नहीं है. हम राजधानी मे रह रहे हैं और यहां की  गरीब बस्ती में रहने वाले आज भी शौचालय के अभाव में बोतल और लौटा लेकर खुले मैदान का सहारा ले रहे है किन्तु इसके बावजूद पिछले तीन वर्षों में स्वच्छता को लेकर समाज में एक सकारात्मक माहौल बना है किन्तु अभी भी बहुत कुछ करना है. सबसे पहली बात तो यह कि गंदगी फैलाने की आदत से बाज नहीं आने वालों के प्रति थोड़ी बहुत सख्ती जरूरी है उसके बगैैर इस मिशन के पूरा होने की संंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंभावना कम है. कागजी तौर पर देखा जाये तो  सफाई देश के एजेंडे पर आ गई है. सर्वे के अनुसार शहरों और कस्बों के करीब आधे लोगों ने माना है कि पिछले तीन वर्षों में स्वच्छ भारत स्कीम का ठीकठाक असर उन्हें अपने आसपास देखने को मिला है लोग यह भी मान रहे हैं कि एकदम से तो सबकुछ नहीं बदला  है, मगर  दिशा सही हैं

पुलों पर ही नहीं स्टेशनों पर भी मौत का साया!

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पुलों पर ही नहीं स्टेशनों पर भी मौत का साया! मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन के हादसे ने कुछ पुराने हादसों की याद दिला दी.सवाल यह है कि हम हादसों से सबक क्यों नहीं सीखते?हमारी सरकारें दुर्घटनाओं के बाद सक्रिय हो जाती है-राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है. टीवी चैनलों में इन घटनाओं को लेकर बड़ी बहस का सिलसिला चलता है इसमें वे अपनी टीआरपी बढ़ाने की कौशिश करते हैं कुछ कमजोर वर्ग के कर्मचािरयों पर गाज गिरती है कुछ को संस्पेडं कर दिया जाता है तथा कुछ कर्मचारियों पर विभागीय जांच होती है तथा हताहत लोगों के परिजनों को मुआवजा देकर चैप्टर खत्म कर दिया जाता है. यह सिलसिला आजादी के बाद के अब तक के वर्षो में यूं ही चलता आ रहा है. आश्चर्य की बात यह है कि हमारी सरकारें किसी भी हादसों से सबक नहीं सीखती. कुछ दिन तक मामला गर्मागर्म रहता है और सब अपने कामाकाज में लग जाते हैं.मुम्बई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन हादसे से चार साल पहले इलाहाबाद और उससे भी पहले लखनऊ,दिल्ली रेलवे स्टेशनों पर भी महज अफवाहों के कारण भगदड़ मची थी और अचानक सारे इंतजाम नाकाफी हो गए थे..मुंबई की घटना का सच य