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गुजरात चुनाव...सत्ता तो मिली लेकिन चेतावनी भी दी गई

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गुजरात में बेशक जीती बीजेपी, जीतना ही था, इतने सघन प्रचार-प्रसार और पूरी ताकत  के बाद भी अगर भाजपा नहीं जीतती तो शायद यह उसके लिये बहुत बड़ी हार होती. जीत इतने कम मार्जिन से है कि उसे अब अगले चुनाव के लिये सतर्क हो जाना चाहिये. अपने गृह राज्य में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इतना पसीना बहाने की जरूरत ही नहीं होनी चाहिये थी. इसमें दो मत नहीं कि यहां कांग्रेस ने कड़ा मुकाबला कर भाजपा को इस बात की चेतावनी तो दे दी है कि अब आगे उसे अपनी रणनीति में काफी बदलाव करना होगा.उण्णीस वर्षो से भाजपा गुजरात की सत्ता पर काबिज  हैं. प्राय: हर पार्टी की सरकार को सत्ता में रहते हुए नकारात्मक वोटो का सामाना करना पड़ता है किन्तु यह गुजरात की जनता का मोदी प्रेम था कि उसने उन्हें फिर मौका दिया और बीजेपी सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने में  कामयाब रही, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहनगर वडनगर जिस विधानसभा क्षेत्र में आता है, वहां बीजेपी की हार हो गई. कांग्रेस प्रत्याशी आशा पटेल ने बीजेपी के नारायण पटेल को हराया.यह भी दिलचस्प है कि वडनगर में पीएम मोदी और राहुल गांधी दोनों ने रैलियां की थीं. गुजरात च

किस्मत बदलती है,दाना अब खुशहाल लेकिन...!

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मनुष्य जीवन के बारे में बहुत सी बाते कहीं गई हैं-कहा जाता है कि इंसान पैदा होते ही अपने कर्मो का सारा फल अपने साथ लेकर आता है. यह भी कहा जाता है कि जिसके किस्मत में जो हैं उसे मिलकर ही रहेगा. यह भी कहा गया है कि मनुष्य को अपने कर्मो का फल भी इसी जन्म में भोगना पड़ता है.हम जब ऐसी बातों को  सुनते हैं तो लगता है कि कोई हमें उपदेश दे रहा है या फिर ज्ञान बांट रहा है, किन्तु जब हम इसे अपने जीवन में ही अपनी आंखों से देखते व सुनते हैं तो आश्चर्य तो होता ही है कि वास्तव में कुछ तो है जो सबकुछ देखता सुनता और निर्णय लेता है. यह बाते हम उस व्यक्ति के बारे में कह रहे हैं जिसने पिछले साल पैसे न होने के चलते अपनी पत्नी की लाश को 10 किलोमीटर तक पैदल अपने कंधे पर ढोने के बाद अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में प्रमुख स्थान प्राप्त किया था. ओडिशा के गरीब आदिवासी दाना मांझी की जिंदगी साल भर में अब पूरी तरह बदल चुकी है. उसकी गरीबी अब उसका पीछा छोड़ चुकी है.इसी सप्ताह मंगलवार पांच तारीख को मांझी कालाहांडी जिले के भवानीपटना से अपने घर तक उस होन्डा  बाइक पर सफर करता हुआ पहुंचा ,जिसे उसने शो रुम से 65 हजार रु

ऐसे लाकर जिसमें रखे पैसे की कोई सुरक्षा नहीं!

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14 सिंतंबर 2004 को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर मेेंं  दिन-दहाड़े सुबह करीब साढ़े दस बजे शहर के मुख्य मार्ग स्थित स्टेट बैंक ऑफ इंदौर से पाँच करोड़ रुपए लूट लिए गये थे. यह बहुत बड़ी लूट थी तब से अब तक का लम्बा समय गुजर गया लेकिन न बैंक वाले चेते न पुलिस और न प्रशासन. सुरक्षा व्यवस्था में कोइ्र्र तब्दीली नहीं हुई. इसके बाद से अब तक पूरे छत्तीसगढ़ में बैंक डकैतियों का एक लम्बा सिलसिला चल पड़ा है लेकिन सुरक्षा का मामला तब गर्म होता है जब फिर कोई वारदात होती है.छत्तीसगढ़ में अभी दो दिन पहले हुई दो डकैतियों के बाद से मामला फिर गर्म है. बैकों की सुरक्षा व्यवस्था पर जहां गंभीर सवाल उठे हैं वही लाकरों पर भी सवाल खड़े किये गये हैं. इतने नियम-कानून के बाद भी हमारा पैसा बैंकों मेें कितना सुरक्षित है? यह सवाल उस समय ठठता है जब बैंक में कोई हादसा होता है. लोग अपने मेहनत की कमाई को चोरों से बचाने के लिये बैंक का सहारा लेते हैं यह मानकर कि उनका पैसा यहां सुरक्षित रहेगा.बैकों में खाता खुलवाने से पहले बड़ा सा आवेदन पत्र ठीक उसी तरह भरवाया जाता है जिस तरह विद्युत मंडल वाले बिजली का मीटर देने के पह

ट्रेन दुर्घटनाओं की कड़ी बढ़ रही है फिर भी खाली पड़े है एक दशमलव इकत्तीस लाख पद !

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ट्रेन दुर्घटनाओं की कड़ी बढ़ रही है फिर भी खाली पड़े है एक दशमलव इकत्तीस लाख पद !  यूपी के चित्रकूट के पास हुए आज सुबह करीब चार बजकर तीस मिलिट पर एक ट्रेन हादसे में तीन लोगों की मौत हो गई और नौ घायल हो गए हैं. ये हादसा मानिकपुर स्टेशन पर हुआ है. रेल मंत्रालय ने हादसे में मरनेवाले के परिवार को 5 लाख और गंभीर रूप से घायलों को 1 लाख रुपये और घायलों को पचास हजार रुपये के मुआवजे का एैलान किया है.बताया जा रहा है कि वास्को-डि-गामा पटना एक्सप्रेस पटरी से उतर गई. इस हादसे में ट्रेन के 13 डिब्बे पटरी से उतरे जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई. जब रेल लाइनों की निगरानी के लिये आदमी ही नहीं है तो कैसे नहीं होगी ऐसी घटनाएं? इस और इससे पहले हुई दुघटनाओं के परिपे्रक्ष्य में यह सवाल इसलिये उठर चूंकि रेलवे बोर्ड के अफसरों  ने यह बात स्वीकार की है कि रेलवें  में ट्रेन पातों की निगरानी के लिये लगाये जाने वाले आदमियों की कमी है. इस काम के लिये अभी करीब साठ हजार गेंगमेनों की जरूरत है और यह पद खाली पड़े हैं. हमारी ट्रेनें गेंगमेनों के बगैर कैसे पटरियों पर दौड़ रही है और हम कितने सुरक्षित हैं इसका अंदाज इन आ

यह अकेले फोर्टिस अस्पताल का मामला नहीं!

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गुडग़ांव के फोर्टिस हॉस्पिटल में डेंगू से पीडित एक सात साल की बच्ची को पन्द्रह दिनों तक भर्ती करके उसका इलाज किया गया और उसके बाद उसकी मौत हो गई इसके बाद परिवार पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. बच्ची को पन्द्रह दिन तक इलाज करने के नाम पर परिवार पर करीब अठारह लाख  रूपये का बिल थमा दिया.यह सुनकर ही एक आदमी का कलेजा सूख जाता है किन्तु अगर बच्ची पर इतना पैसा खर्च करने के बाद ठीक हो जाती तो शायद किसी को इतना ऐतराज नहीं होता. इलाज के बाद परिवार खुशी खुशी बच्ची को अपने घर ले जाते लेकिन इलाज के बाद भी इतनी रकम की वसूली किसे रास आयेगी?. यह तो  बच्ची के पिता जयंत सिंह के दोस्त का टिवटर एकाउंट था जिसने इस पूरे मामले को देश के बड़े स्वास्थ्य मंत्री के कानो  तक पहुुंचा दिया वरना अस्पतालों में होने वाली इस तरह की बड़ी बड़ी घटनाओं की तरह यह भी यूं ही दब जाता. जो बात इस पूरे मामले में सामने आई है उसके अनुसार जयंत सिंह की 7 साल की बेटी डेंगू से पीडि़त थी और वह  इलाज के लिए 15 दिन तक फोर्टिस हॉस्पिटल में भर्ती रही. हॉस्पिटल ने इसके लिए उन्हें 18 लाख का बिल थमा दिया। इसमें 2700 दस्ताने और 660

हम बस सत्तर सालों से 'आजाद हैं!

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लोकतंत्र का बड़ा पर्व चुनाव अब उस मुकाम पर पहुंच गया है जहां आम आदमी के मुकाबले ज्यादातर पैसे वालों व बाहुबली की भागीदारी हो रही है. गरीब, मजदूर और किसान की कोई पूछ नहीं होती, क्योंकि इस पर्व में सिर्फ पैसा बोलता है. अगर अवैध धन की बात छोड़ भी दें तो आधिकारिक रूप से भी चुनाव में उम्मीदवारों को 28 लाख रुपये तक खर्च करने की छूट दी गई है. समानता -सर्वकल्याण जैसी संकल्पना लोकतंत्र की मूल भावना में निहित हैं किन्तु चुनाव के दौरान आम आदमी जिसके मतों से चुनकर सरकार का अस्तित्व कायम होता है वह किनारे लगकर सिर्फ नारेबाजी करने और लाइन में लगकर अपने संविधान प्रदत्त अधिकार का उपयोग करने का साधन मात्र रह जाता है. पूरे पांच साल तक चुनकर भेजने वालों में से बहुत लोग जहां जनता के पैसे से सुख सुविधाएं भेागते हैं और बेचारा वह व्यक्ति जो वोट देने के बाद उस किसान की तरह हो जाता है जो कभी  बारिश न होने से आसमान की तरफ ताक लगाये बैठा रहता है. चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर कोई सवाल नहीं उठाते हुए हम यह तो इंगित करना चाहते हैं कि चुनाव में खर्च की सीमा तय करते समय उसे यह भी ध्यान में रखना चाहिए था कि क्या एक आ

युवा पीढ़ी के दिमाग में सिर्फ किताबी किस्से ही क्यों?

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आजादी के बाद के कई वर्षो तक प्राथमिक शिक्षा का जो माहौल था वह बच्चों में थोड़ा या कहीं -कहीं  ज्यादा डर पैदा कर कुछ सिखाने का रहता था. मंशा यह रहती थी कि बच्चा पढ़ाई के साथ कुछ ऐसा भी सीख ले कि वह आगे जाकर किसी कारणवश पढ़ाई छोड़ भी दे तो उसे जो बुनियादी सीख दी गई है वह उसके आधार पर अपना व्यवसाय उद्योग खेती कर अपना व अपने परिवार को पाल सके किन्तु आगे आने वाले वर्षो में यह सोच खत्म हो गई. बुनियादी शिक्षा के नाम पर पूर्व के कई स्कूलों में पढ़ाई के साथ साथ हस्तशिल्प, चित्रकारी खेलकूद, व्यायाम स्काउट, एनसीसी आदि के भी प्रशिक्षण का बोलबोला था. व्यावसायिक शिक्षा पद्वति अपनाने से छात्रों की पुस्तकों के प्रति होने वाली कथित बोरियत बहुत हद तक कम हो जाती थी. वैसे हम पूरे तौर पर यह नहीं कह सकते कि स्कूलों ने पुस्तकों के बोझ के परिप्रेक्ष्य में  पुरानी पढ़ाई की पद्वति को पूरी तरह तिलांजलि दे दी लेकिन इसका स्वरूप बदल गया. सरकारों ने इसे बहुत हद तक अलग कर इसके अलग-अलग विंग बना दिये या कहीं कहीं तो इसके अलग विभाग ही स्थापित कर दिये. बच्चे जो पहले पढ़ाई के साथ बुनाई, कढ़ाई, कला चिंत्राकन आदि का

कोई दलील नहीं, कोई सुनवाई नहीं- फैसला ऑन द स्पॉट!

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हमारे आसपास होने वाली कुछ घटनाओं को सुनकर या देखकर हमारा सिर शर्म से झुक जाता है और उस कानून पर भी तरस आता है जिसके रहते मनुष्यों या जानवरों पर जुर्म करने वालों पर कार्रवाई नहीं होती. हाल ही बिहार के अजासैरा जिले की ग्राम पंचायत में एक व्यक्ति जिसका नाम महेश ठाकुर है को कथित रूप से बिना अनुमति के घर में घुसकर आने के लिए इतनी बड़ी सजा दी कि वह किसी के मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा, जिसने भी सुना वह दहल उठा. वह दिन दीवाली का था और उस दिन पूरा देश खुशियां मना रहा था तथा भगवान राम के अयोघ्या वापसी की खुशी में पटाखें फोड़ रहा था तभी नालंदा पंचायत के फरमान पर एक शख्स लोगों के थूक चाटकर अपनी सजा पूरी कर रहा था। कसूर यह था कि दिवाली के मौके पर वह बिना दरवाजा खटखटाए सुरेन्द्र यादव के घर के अंदर आ गया। उसे यह नागवार गुजरा और बुरा भला कहते हुए महेश ठाकुर नामक शख्स को मुखिया दयानंद मांझी के घर ले गया जहां सरेआम गांववालों के सामने बेइज्जत तो किया गया साथ ही वहां मौजूद मुखिया ने सजा सुनाकर उसे अपना थूक चाटने के लिए मजबूर किया इतने पर भी यह सजा पूरी नहीं हुई, महिलाओं ने उसे चप्पलें मारीं। पीडि़त व

ढोल बजा नहीं,शोर गूंजने लगा!

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ढोल बजा नहीं,शोर गूंजने लगा! जी हां कुछ ऐसी ही स्थिति है गुजरात चुनाव की.चुनाव आयोग ने अभी गुजरात में चुनाव तिथियों का ऐलान नहीं किया है किन्तु इस बीच गुजरात को फतह करने  जोड़तोड़ शुरू हो गई है. जनता जिसे सबकुछ करना है वह शांत व मूक दर्शक है लेकिन सत्ता पर काबिज होने के लिये बेताब रणबाकुरे कोइ्र्र भी खेल इस दौरान  खेलने बेताब हैं. यह कोशिश वास्तव में  दिलचस्प है. गुजरात की सत्ता से कई सालों से बेदखल कांग्रेस को जहां इस बार गुजरात से काफी उम्मीद है वहीं उसके शुरूआती दाव पैच भाजपा को बैचेन कर रही है. प्रधानमंत्री के गृह राज्य में होने वाले इस चुनाव में उनकी दिलचस्पी स्वाभाविक है वहंी उनकी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों की प्रतिष्ठा भी दाव पर लगी हुई है.इससे पूर्व यूपी में चुनाव हो चुका है जहां कांग्रेस व समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा था. बात यहां कुछ उलटी ही है. वह समय लहर का था लेकिन अब काम देखा जाने वाला भी हो सकता है.वोटरों को रिझाने सारे प्रयास जहां तेज हैं वहीं खीचतान का सिलसिला भी जारी है. मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से गुजरात के व्यापारियों को घाटा

भारत में 19 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सोते हैं

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 देश में चार में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।   58 फीसदी बच्चों की ग्रोथ 2 साल से कम उम्र में रुक जाती है  ...और दूसरी और वीवीआईपी संस्कृति में जीने वाला एक पूरा कुनबा भी है जो हीरे और सोने से लदा है फिर भी खुश नहीं! इतनी सुविधाएं कि आंखे फटी रह जाये ! हम भले ही अपने आपको विश्व के बड़े देशों के समकक्ष स्थापित करें लेकिन हकीकत हमही जानते हैं कि हमारे देश का एक बड़ा समुदाय नंगा, भूखा और बहुत गरीब है जबकि मुट्टीभर लोगों के हाथ में बहुत कुछ आ गया है और वह देश की जनता को उंगलियों पर नचाने की ताकत भी रखता हैं. हां हम जिस प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं उसमें सत्तासीन कई लोगों की सपंत्ति से दूसरे देशों की तुलना करेंं तो यह उनसे कई गुना है जबकि जिनकी मदद से वे इस मुकाम पर पहुंचे हैं वे उनके सामने एकदम बौने हैं. आजादी के बाद के वर्षो में ऐसे लोगों की संपत्ति मेंं जो इजाफा हुआ है वह आश्चर्यजनक ,अविश्वसनीय है शायद यही कारण है कि देश में राजनीतिक दलों में घुसने और कुर्सी पाने की होड़ सी मची हुई है.इसमें भी वे लोग हैं जिसके पास अकूट संपत्ति है या जिनके पास मैन पावर है.म

आखिर हत्यारें कौन? क्यों मिली निर्दोष को सजा

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यह विचित्र बात है कि नौ साल बाद भी हमारे देश की जांच एजेंसिया यह पता नहीं लगा पाई कि बाहर से  बंद बंगले में रह रहे चार लोगों के बीच रह रहे दो व्यक्तियों की सनसनीखेज ढंग से की गई हत्या का  असली मुलजिम कौन हैं.सवाल यह उठता है कि क्या यह मामला भी अब उन पुराने मामलों की तरह गुमनामी में चला जायेगा जिसमें वास्तविक हत्यारों का पता लगाने या साक्ष्य प्रस्तुत करने में एजेंसियां विफल हो गई. कई मामलों में तो वास्तविक हत्यारें छुट्टा घूम रहे होते हैं जबकि डमी या निर्दोष पेश किये गये साक्ष्यों के आधार पर सजा भुगत रहे होते हैं.आरूषी-हेमलाल हत्याकांड में निचली अदालत ने आरूषी के माता पिता को उम्र कैद की सजा सुनाई थी जिसके विरूद्व उनके वकीलों ने हाईकोर्ट  में अपील की और हाईकोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में उन्हें बरी कर दिया. इस दौरान जो मानसिक व शारीरिक यातानांए इस परिवार को झेलनी पड़ी उसका जिम्मेदार कौन है? दूसरा प्रशन यह कि अगर आरूषी और हेमलाल की हत्या इन दोनों ने नहीं की तो किसने की? यह अब कभी पता चल पायेगा? कई ऐसे प्रश्न इस फैसले के बाद लोगों के दिमाग में कौद रहे हैं और पुलिस की जांच प्रणाली पर भी उंग

जनता के मूड पर निर्भर रहेगा अब का चुनाव!

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जनता के मूड पर निर्भर रहेगा अब का चुनाव! इस साल के आखिर तक होने वाला गुजरात विधानसभा का चुनाव यह बतायेगा कि अगले चुनावों में देश की दिशा क्या होगी? क्या भाजपा अगले सालों में सता पर बनी रहेगी? क्या अहमद पटेल की जीत के बाद गुजरात में माहौल बदला है? कांग्रेस इसी उत्साह से मैदान में उतरेगी कि उसे यहां  फिर सत्ता में आसीन होने का मौका मिलेगा. भाजपा- कांग्र्र्रेस के बीच जहां टक्कर होगी वहीं  तीसरी पार्टी के रूप में आम आदमी भी मैदान में उतरकर आगे के लिये अपनी रणनीति व किस्मत दोनो आजमा सकती है. गुजरात विधानसभा चुनाव जहां भाजपा के परफोरर्मेंस की नापझोक करेगा वहीं कांग्रेस को यह संदेश देगा कि उसकी किस्मत में आगे क्या लिखा है. असल में विधानसभा का यह चुनाव न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के लिए भी यह प्रतिष्ठा का प्रश्न है. दोनों सियासी महारथी इसी राज्य से आते हैं, इसलिए इन्हीं दोनों के कंधों पर गुजरात चुनाव का दारोमदार भी टिका है.वैसे गुजरात का माहौल पिछले वर्षो में बदला है. पटेल आंदोलन को ठीक से हैन्डिल न कर पाने के कारण जहां आन

दंडधारी, चौकीदार, दरोगा से 'पुुलिस तक का सफर कितना सफल?

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प्राचीन भारत का स्थानीय शासन मुख्यत:  ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था गाँव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित किए जाते थे. इसकी सहायता और निर्देशन ग्राम के वयोवृद्ध करते थे. पुलिस व्यवस्था के विकासक्रम में उस काल के दंडधारी को वर्तमान काल के पुलिस जन के समकक्ष माना जा सकता है यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे वरन् इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने में से चुन लेते थे. ग्रामिणों के ऊपर 5-10 गाँवों की व्यवस्था के लिए गोप एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए स्थानिक नामक अधिकारी होते थे.इन निर्वाचित ग्रामीण अधिकारियों द्वारा अपराधों की रोकथाम का कार्य सुचारु रूप से होता था और उनके संरक्षण में जनता अपने व्यापार उद्योग-निर्भय होकर करती थी.हिन्दू काल के बाद सल्तनत और मुगल काल में भी ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की परंपरा अक्षुण्ण रही.मुगल काल में ग्राम के मुखिया मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे और निर्माण चौकीदारों की सहायता से ग्राम में शांति की व्यवस्था स्थापित की जाती थी. चौक

स्वच्छ भारत अभियान के तीन साल ...!

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स्वच्छ भारत अभियान के तीन साल ...! भले ही हम दावा करें कि स्वच्छता के मामले में हमने बहुत कुछ कर लिया है किन्तु हकीकत यही है कि अभी हमें बहुत कुछ करना है.आज सुबह जब मैं मार्निंग वाक पर निकला तो मुझे इस बात का एहसास हुआ कि इतना सब कुछ होने के बाद भी लोग जागरूक नहीं है. हम राजधानी मे रह रहे हैं और यहां की  गरीब बस्ती में रहने वाले आज भी शौचालय के अभाव में बोतल और लौटा लेकर खुले मैदान का सहारा ले रहे है किन्तु इसके बावजूद पिछले तीन वर्षों में स्वच्छता को लेकर समाज में एक सकारात्मक माहौल बना है किन्तु अभी भी बहुत कुछ करना है. सबसे पहली बात तो यह कि गंदगी फैलाने की आदत से बाज नहीं आने वालों के प्रति थोड़ी बहुत सख्ती जरूरी है उसके बगैैर इस मिशन के पूरा होने की संंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंभावना कम है. कागजी तौर पर देखा जाये तो  सफाई देश के एजेंडे पर आ गई है. सर्वे के अनुसार शहरों और कस्बों के करीब आधे लोगों ने माना है कि पिछले तीन वर्षों में स्वच्छ भारत स्कीम का ठीकठाक असर उन्हें अपने आसपास देखने को मिला है लोग यह भी मान रहे हैं कि एकदम से तो सबकुछ नहीं बदला  है, मगर  दिशा सही हैं

पुलों पर ही नहीं स्टेशनों पर भी मौत का साया!

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पुलों पर ही नहीं स्टेशनों पर भी मौत का साया! मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन के हादसे ने कुछ पुराने हादसों की याद दिला दी.सवाल यह है कि हम हादसों से सबक क्यों नहीं सीखते?हमारी सरकारें दुर्घटनाओं के बाद सक्रिय हो जाती है-राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है. टीवी चैनलों में इन घटनाओं को लेकर बड़ी बहस का सिलसिला चलता है इसमें वे अपनी टीआरपी बढ़ाने की कौशिश करते हैं कुछ कमजोर वर्ग के कर्मचािरयों पर गाज गिरती है कुछ को संस्पेडं कर दिया जाता है तथा कुछ कर्मचारियों पर विभागीय जांच होती है तथा हताहत लोगों के परिजनों को मुआवजा देकर चैप्टर खत्म कर दिया जाता है. यह सिलसिला आजादी के बाद के अब तक के वर्षो में यूं ही चलता आ रहा है. आश्चर्य की बात यह है कि हमारी सरकारें किसी भी हादसों से सबक नहीं सीखती. कुछ दिन तक मामला गर्मागर्म रहता है और सब अपने कामाकाज में लग जाते हैं.मुम्बई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन हादसे से चार साल पहले इलाहाबाद और उससे भी पहले लखनऊ,दिल्ली रेलवे स्टेशनों पर भी महज अफवाहों के कारण भगदड़ मची थी और अचानक सारे इंतजाम नाकाफी हो गए थे..मुंबई की घटना का सच य

क्या जनहित पर लिये गये निर्णयों से जनता को फायदा हो रहा?

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इसमें दो मत नहीं कि नोट बंदी के बाद ही इस बात के कयास लगने शुरू हो गये थे कि इसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत पड़ सकता है.आरबीआई द्वारा जारी आंकड़ों के बाद यह लगभग स्पष्ट हो गया कि नोटबंदी का फायदा उतना नहीं हुआ जितनी कि सरकार ने उम्मीद की थी इसके पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि आधे से ज्यादा ब्लेक मनी रखने वालों ने निजी और सहकारी बैंकों के जरिये अपने कालेधन को सफेद कर लिया. यह बात सरकार के छापों के बाद स्पष्ट भी हुई है. भ्रष्टाचार और कालेधन पर किये गये नोट बंदी प्रहार ने बहुत हद तक जमा कालाधन तो बाहर निकाला लेकिन जितनी उम्मीद थी उतना नहीं निकला.वास्तविकता यही है कि बंद किये नोट का एक बड़ा हिस्सा बैंको में जमा ही नहीं हुआ. हालाकि नोटंबदी के शुरूआती दौर में कुछ कु छ फायदा जरूर देखने को मिला लेकिन धीरे-धीरे जीडीपी में जो कमी आती गई उसने अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकजोर कर रख दिया. सरकार ने ईधन के दाम को  कंट्रोल करने के लिये दैनिक दाम तय करने की नीति अपनाई कुछ समय तक पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए किन्तु अचानक  ही इसमें भारी तेजी आने लगी. एक्साइज ड्यूटी और वेट के भार ने आम लोगो के ल

लड़की की बात वीसी सुन लेते तो क्या इतना बड़ा ववाल होता ?

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बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) में गर्ल्स स्टूडेंट्स पर किए गए लाठीचार्ज के मामले की जांच रिपोर्ट आ गई है जिसमें जांचकर्ता कमिश्नर ने यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन को जिम्मेदार बताया है वहीं, वाइस चांसलर (वीसी) ने कैम्पस में हुए लाठीचार्ज की बात को झूठा करार दिया है.आपस मे बातचीत नहीं रहने अथवा संवादहीनता तथा निर्णय लेने में अदूरदर्शिता के क्या दुष्परिणाम निकल सकते हैं यह बीएचयू की घटना से अपने आप सिद्व हो जाता है  परिसर के भीतर लड़कियों से छेडख़ानी की घटना की अनदेखी की गई उससे तो लगता है यह यहां आम बात है तथा अपरिपक्व प्रशासनिक अक्षमता का नतीजा भी. इस घटना के बाद इस विश्वविद्यालय की तानाशाही के कई और सबूत भी सामने आये हैं जिसमें छात्राओं की स्वतंत्रता और उनके मूल अधिकारों का हनन जैसी बातें भी है.  बीएचयू की बच्चियों ने महज अपनी सुरक्षा की मांग ही तो की थी, यही कहा था कि परिसर में, खासतौर से उन जगहों पर सीसीटीवी कैमरे लगवा दिए जाएं, जहां से निकलने में उनको असुरक्षा का बोध होता है. उन्हें लगा कि कैमरे लगने से शायद परिसर में छेड़खानी रूके  और अराजकता पर अंकुश लग जाए. इस मामले में  वे

गरीबी हटाने का लक्ष्य अभी कोसो दूर!

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भारत छोड़ो आंदोलन की 75 वीं वर्षगांठ पर संसद में वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा था 1991 के बाद हर सरकार के दौर मे प्रगति हुई है प्रगति की दर बढ़ी है. गरीबी भी कम हुई है और जन-जीवन का स्तर भी लेकिन देश की सबसे बड़ी चुनौती गरीबी आज भी है.1991 के बाद नई सरकार ने रास्ता बदलने की कोशिश जरूर की लेकिन गरीबी हटाने का लक्ष्य अभी कोसो दूर है.जन-जीवन का स्तर सुधरा है. किन्तु आज भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो गरीबी रेखा से नीचे हैं. बड़ी आवश्यकता देश के  संसाधन बढ़े और जहां विकास नहीं हो रहा, उसके लिए काम करें. जिस वर्ग की बात अरूण जेठली ने की थी वह बड़ा वर्ग ऐसा है जो अशिक्षित है ऐसा व्यक्ति काम की कमी के कारण कुछ कार्य नहीं कर पाता उसके दिमाग में कुछ और ही घूमता रहता है.अधिकांश अपराधी प्रवृति की ओर बढ़ते हैं. दूसरा कारण विकास योजनाओं में कमी एवं उदासीनता है जिसके चलते भ्रष्टाचार की स्थिति बनती है .बाल मज़दूरी और दास प्रथा को समाप्त करने कानून जरूर बने लेकिन अमल कितना हुआ?गरीबी का एक बड़ा कारण जो हम देखते हैं वह है कृषी का पिछड़ा होना. उद्योगों को बढ़ावा देने के चक्कर में हम अपने अन्नदाताओ को भूल

ब्रांडेड दवाओं से तेरह गुना तक सस्ती दवा के खिलाफ कौन सी साजिश?

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ब्रांडेड दवाओं से तेरह गुना तक सस्ती दवा के खिलाफ कौन सी साजिश? जैनरिक दवाओं के मामले में भारत की गिनती दुनिया के बेहतरीन देशों में होती है. इस समय भारत  दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जैनरिक दवाओं  के उत्पादक  वाला देश है किन्तु कितने चिकित्सक ऐसे हैं जो अपनी पर्ची में जैविक दवा लिखते है ? भारत से हर वर्ष करीब बयालीस हजार करोड़ रुपए की जैनरिक दवाएं बाहर दूसरे देशों में जाती है.यूनिसेफ अपनी जरूरत की पचास फीसदी जैनरिक दवाइयां भारत से ही मंगाता है. भारत से कई अफ्रीकी देशों में सस्ती जैनरिक दवाइयां भेजी जाती है तथा आ भी  रही है. इससे यह बात तो साफ है कि भारत में आम जनता के लिए सस्ती जैनरिक दवाइयां आसानी से बनाई व बेची जा सकती हैं किन्तु ऐसा सही ढंग से हो नहीं रहा.जैनरिक दवाओं  पार आम लोगों का विश्वास बढ़ाने और जैविक दवा के इस्तेमाल के लिये प्रेरित करने के लिये यह जरूरी है कि शासन स्तर पर चलाये जाने वाले अस्पताल ये दवाएं अपने मरीजों को मुफ्त में दें तथा प्रायवेट चिकित्सक अपनी पर्ची में कुछ नहीं तो कम से कम एक दवा जरूर लिखे और मरीज के परिवार को भी समझाये कि इससे क्या फायदे हैँ. बहुत से लोग

क्यों बन गये हैं भारत के लिए रोहिग्या सिरदर्द?

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एक सरदर्द हमारे ऊपर उस इंटेलिजेंस रिपोर्ट के बाद और बढ़ गया जिसमें कहा गया है कि भारत-म्यांमार बॉर्डर पर कड़ी सुरक्षा के बीच रोहिंग्या मुसलमान पेशेवर तस्करों की मदद से समुद्र के रास्ते देश में घुसपैठ कर सकते हैं. रोहिंग्या मुसलमान स्थानीय एजेंसियों द्वारा उत्पीडऩ और स्थानीय बौद्ध आबादी के साथ उनके विवाद के बाद 2012 से म्यांमार भाग रहे हैं.यहां तक तो ठीक है किन्तु आतंकवादी संगठन इसका फायदा उठाने की कोशिश में लगे हैं. बंगलादेश  शरणार्थियों को झेल चुके भारत के लिये और शरणार्थियों को झेल पाना कठिन ही नहीं सभव भी नहीं है. यूं ही आबादी का बोझ हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहा है वहीं आंतकवादी गतिविधियों को हम न केवल सीमा पर झेल रहे हैं बल्कि यह हमारी एक आंतरिक समस्या भी बनी हुई है.आज की स्थिति यह है कि 40 हजार रोहिंग्या असम, वेस्ट बंगाल, जम्मू, यूपी और दिल्ली के कैंप में रह रहे हैं.जबकि रोहिंग्या बंगाल जैसे क्षेत्रों से घुसपैठ करने की हर संभव कोशिश में लगे हैें. इसमें यह पहचानना कठिन है कि कौन सही शरणार्थी है और कौन आंतक के खेमे से आकर शामिल हुआ है अत: हमें क्या किसी भी दूसरे देश को

रफतार की नई तकनालाजी...लो आ गई बुलेट ट्रेन!

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रफतार की नई तकनालाजी...लो आ गई बुलेट ट्रेन! भारत में इस गुरूवार को जापान और भारत के बीच रफतार की एक नई तकनालाजी का उदय हुआ है. इसमें दो मत नहीं कि जब भी हमारे देश में कुछ इस तरह की तकनालाजी या संस्कृति कदम रखती है तो उसका पहले विरोध होता है जैसा पहले टीवी, कम्पयूटर का हुआ. हाल ही ड्रायवर लेस कार ने ऐसे विरोध को हवा दी. परिवहन मंत्री ने तो यह तक कह दिया कि हम इस कार को भारत की धरती पर कदम रखने नहीं देंगे. इसी कड़ी में अब तेज रफतार से दौडऩे वाली बुलेट ट्रेन भी कई लोगों को रास नहीं आ रही है. इसके पीछे छिपे कुछ कारण भी है जिसपर गौर करने की जरूरत है. भारतीय रेल दुनिया की सबसे बड़ी रेल सेवा होने के बावजूद सुविधाओं, सुरक्षा और किराये के मामले में सदैव आलोचना का शिकार रही है. ऐसे में हाल के कुछ दिनों में आम जनता को लेकर जाने वाली ट्रेनों का बेपटरी होना भी इस नई आधुनिकता को निशाने पर ले रहा है. अहमदाबाद और मुम्बई के बीच चलने वाली बुलेट ट्रेन का फायदा आम जनता को कितना मिलेगा यह अपने आप में प्रश्र है वहीं इसपर खर्च होने वाली राशि पर लगने वाला ब्याज भी किसी को रास नहीं आ रहा है. हम अपने द