ं शिक्षा के मंदिर में बड़े पुजारी की तानाशाही...क्यों सिस्टम फैल है यहां?



शिक्षा के मंदिर में बड़े पुजारी की तानाशाही...क्यों सिस्टम फैल है यहां?

बहुमत नहीं तो सरकार नहीं चल सकती- डेमोक्रेटिक कंट्री में ऐसा होता है लेकिन डेमोके्रेटिक कंट्री के सिस्टम में ऐसा नहीं हो रहा. सिस्टम को चला रहे कतिपय लोगों के खिलाफ सारी प्रजा एक भी हो जाये तो सिस्टम उसे बनाये रखने में ही अपनी शेखी समझता है. अब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से कुछ किलोमीटर दूर आदिवासी कांकेर जिले के गढ़ पिछवाड़ी सरस्वती शिशु मंदिर को ही लीजिये यहां का पूरा
जनसमुदाय अर्थात इस शैक्षणिक मंदिर में पढऩे वाले बच्चे वहां का स्टाफ और शिक्षक सभी एक स्वर से मांग कर रहे हैं कि इस शिक्षा मंदिर के बड़े पुजारी अर्थात प्राचार्य को हटाया जाये लेकिन प्रशासन और सरकार दोनों कान में रूई डालकर छात्र-शिक्षकों और स्टाफ को मजबूर कर रहा है कि वे आंदोलन करें. कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे एक व्यक्ति को किसी पद से हटा देने से वहां पहाड़ टूटकर गिर जायेगा. अगर बहुमत यह मांग कर रहा है तो उसे हटाने में क्यों देरी की जाती है. एक व्यक्ति अगर सारी व्यवस्था के लिये बोझ बनता है तो क्या हमारे देश में दूसरा कोई नौजवान नहीं है जो इस कार्य को संम्हाल सके. अक्सर ऐसा प्रश्न इस किस्म के आंदोलनों के चलने के बाद उठ खड़ा होता है. कुछ आंदोलन तो कई कई दिन तक खिच जाते हैं इसमें नुकसान न केवल सरकार का होता है बल्कि संबन्धित पक्ष को भी इसका खामियाजा भरना पड़ता है जैसा कि इस मामले में हो रहा है-प्राचार्य के दुव्र्यवहार अपशब्दों के कारण छात्रों को सड़क पर आना पड़ा.उनकी पढ़ाई का नुकसान हो रहा है. तोडफ़ोड़ हुई तो सरकार का नुकसान होगा. ऐसे मामलों में तत्काल डिसीशन क्यों नहीं लिये जाते? कांकेर के गढ़पिछवाड़ी सरस्वती शिशु मंदिर के छात्रों ने शुक्रवार को स्कूल प्राचार्य के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए कक्षाओं का बहिष्कार कर दिया छात्र स्कूल के बाहर पेड के नीचे धरने पर बैठ नारेबाजी कर रहे हैं उनका आरोप है कि प्राचार्य की प्रताडऩा से तंग आकर शिक्षक स्कूल छोड़ रहे हैं। प्राचार्य छात्रों को नाली के पनपते कीड़े, मक्खी, मच्छर कहकर बुलाते हैं. छात्रों व शिक्षकों सभी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है-शिकायत पहुंचने के तुरन्त बाद संज्ञान  क्यों नहीं लिया गया? बात को बढऩे देने से अच्छा यही होता कि निर्णय तत्काल लिया जाता. वास्तव में यही नौकरशाही की कमजोरियां हैं जो जनता द्वारा निर्वाचित सरकार के कार्यो का आंकलन करती है.स्कूल के छात्रों शिक्षकों ने काफी सब्र करने के बाद आंदोलन किया होगा.. चूंकि जब पानी सर के ऊपर से निकल जाता है तभी कोई व्यवस्था के खिलाफ सड़क पर उतरने का निर्णय लेता है. इस स्कूल के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ है जहां कई दिनों से ऐसा ही चल रहा है.शिकायतों का अंबार उच्च अधिकारियों तक पहुंचने के बाद भी वे कान में रूई डालकर बैठे हैं. एक प्राचार्य से पूरी संस्था खफा है तो इसका मतलब है कि वह पूरा तानाशाह होकर  किसी कि शह पर काम कर रहा है. इससे यह आंकलन भी किया जा सकता है कि कोई ऐसे व्यक्तियों को संरक्षण दे रहा है.ऐसे में पूरे महकमें के जिम्मेदार लोगो को यह पता लगाना चाहिये था कि आखिर माजरा क्या है? अगर यह पता लगा लिया जाता तो शायद यहां तक की नौबत नहीं आती.यह एक शिक्षा विभाग का मामला नहीं है जहां इस ढंग की लापरवाही बरती जाती है जिसके चलते लोगों को आंदोलन का सहारा लेना पड़ता है-पहले थोडी सी हलचल, फिर उसका विस्तार, फिर राजनीतिक हस्तक्षेप किन्तु ऐसी छोटी छोटी सी बातों को रोकने की जिम्मेदारी जिनकी होती  है वे इसे और विस्तारित करने और अंत में भारी डेमेज के बाद कोई निर्णय लेने में ही विश्वास करते हैं. इस स्कूल के बारे में भी कुछ ऐसी ही खबर मिली है जिसमें कहा गया है कि एक उच्च पदस्थ व्यक्ति के आचरण ने इस संस्था से न केवल कई योग्य शिक्षकों को अपनी नौकरी छोड़कर जाना पड़ा है वहीं कई छात्रों ने स्क्ूल जाना भी बंद कर दिया है.खबर तो यह है कि एक साल में ग्यारह शिक्षक स्कूल छोड़कर जा चुके हैं. सवाल यह भी उठता है कि इतने दिनों तक उच्च पदों पर बैठे लोगों ने इस संपूर्ण मामले  पर संज्ञान क्यों नहीं लिया?






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