समय का पालन करने में हम कितने सक्षम?


समय का पालन करने में हम कितने सक्षम?
इंडियन स्टेंडर्ड टाइम!, अब यह हमारे कामकाज के तरीके पर भी दिखाई देने लगा है. जो काम या योजनाएं हाथ में लेते हैं वह कभी समय पर पूरी नहीं होती- कभी कभी तो इतना डिले होता है कि उसकी लागत ही दुगनी हो जाती है. एक तरह से लेट लतीफी का पूरा ट्रेण्ड चल पड़ा है.अगर आप किसी योजना को हाथ में लेते हैं, तो उसे पूरा करने का दमखम भी होना चाहिये वरना ऐसी योजनाओं को हाथ में लेना ही नहीं चाहिये. बात छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की कुछ योजनाओं पर करें तो सारी बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है कि लेट लतीफी की वजह से विकास कार्य कितना बाधित हो रहा है. एक तो मंजूरी मिलने में देर फिर लालफीताशाही और नौकरशाही के चक्कर में डिले और ऐसे होते हुए पूरी योजना की कोस्ट दुगनी से तीनगुनी या उससे ज्यादा तक हो जाती है. यह फिर अंडर ब्रिज का मामला हो या ओवर  ब्रिज का अथवा किसी सड़क के चौड़ीकरण का अथवा किसी स्टेडियम के निर्माण का, सभी में प्रक्रिया तत्काल की जगह महीनों तक डिले ही चलती है. जब मालूम रहता है कि इस योजना को हमे लागू करना है तो उसमें सोचने की बात क्या है. बजट का पैसा तक मिल जाने के बाद भी योजनांए लम्बित होकर पडी रहती है. एक योजना का जिक्र हाल ही हुआ है जिसमें वीआईपी रोड़ की चौड़ाई बढ़ाने का प्रस्ताव है.दूसरा रायपुर के शारदा चौक से लेकर तात्यापारा तक रोड़ चौड़ीकरण का है.दोनों ही योजनाएं महत्वाकांक्षी व जनहित की है-यह सभी को मालूम है कि इसपर तत्काल  कार्य किया जाना चाहिये विलम्ब से पहले से ज्यादा नुकसान होगा फिर भी जबर्दस्त विलम्ब किया जा रहा है.प्राय: हर योजना को कुछ न कुछ प्रशासकीय खामियां और अर्थाभाव का बहाना बनाकर रोककर एक आदत सी बना डाली गई है. सरकार जो काम कराती है, उसमें सरकारी विभाग ही जब अडंगा बनकर सामने आता हैं तो मामला उस पब्लिक के लिये असहनीय हो जाता है जिसके पैसे से यह सब काम होना है. वीआईपी  रोड़ की चौड़ाई बढ़ाने का लाभ पूरे छत्तीसगढ सहित देश को मिलेगा.हवाई अड्डे तक जाने व आने के लिये इस मार्ग का उपयोग लोग करते हैं. इस मार्ग के निर्माण की स्वीकृति सरकार से प्राप्त होते ही इसका निर्माण कर दिया जाना चाहिये था किन्तु दो विभागों के झगड़े में यह मामला छह माह से फंसा हुआ है. टेंडर अटका है और काम शुरू नहीं हो रहा. टेंडर को विभागीय स्वीकृति मिलने में क्यों देरी हो रही है यह पता लगाने का प्रयास किसी स्तर पर नहीं हुआ बस मामला अटका हुआ है. शारदा चौक से तात्यापारा तक के मार्ग का मामला भी कुछ ऐसा ही है -अगर यह कार्य आमापारा  चौक से तात्यापारा तक के साथ साथ पूरा हो जाता तो आज यह रोड़ पूरे शहर की ट्रेफिक समस्या का निदान कर देता साथ ही जनता की जेब से करोड़ां रूपये भी बच जाता लेकिन राजधानी रायपुर सहित पूरे छत्तीसगढ़ में सैकड़ों ऐसी योजनाएं हैं जो सरकार की स्वीकृति के बावजूद नौकरशाही और सुस्त व्यवस्था के जाल  में अथवा आपसी  झगड़े में उलझी पड़ी है.अगर वर्तमान स्थिति में कोई योजना छै माह से एक साल से भी लम्बित हो जाती है तो इसका मतलब है उस योजना का मंहगाई में उलझ जाना. लागत खर्चा समय के साथ साथ बढ़ता है इस बात का ख्याल किसी भी योजना में नहीं रखा जाता अत: यह जरूरी  है कि सरकार कोई भी योजना को पूरा करने के लिये जो समय सीमा निर्धारित करती है उसपर कड़ाई बरते. यह जिम्मेदारी तय करें कि अगर निर्धारित अवधि में कार्य पूरा नहीं होता तो इसका खामियाजा भी ऐसे लोगों को दंङ्क्षडत कर वसूला जाये.




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