आंदोलनों को क्यो लम्बा खिचने दिया जाता है?




कभी पटवारी तो कभी कोटवार! तो कभी आंगनबाड़ी, कभी संविधा शिक्षक तो कभी सफाई क,र्मी,मीटर रीडर...औैर अब रोजगार सहायकों का सत्याग्रह!. आंदोलन करने वालों का दायरा धीरे धीरे बढ़ता ही जा रहा है.सरकार ने भी बड़ी चालाकी से आंदोलन करने वालों के लिये राजधानी के बूढ़ापारा में एक जगह भी निश्चित कर दी है जैसे कह रहे हो तुम वहीं रहो जो करना है करों हमने अपने कान में रूई लगा रखी है. आंदोलनकारी मांगे मनवाने के लिये तरीके भी अलग अलग इजाद कर रहे हैं.कभी पूरे परिवार को साथ लेकर तो कभी सर मुडाकर तो कभी बदन से सारे कपड़े उतारकर तो कभी भैस लेकर तो कभी घासलेट का डिब्बा हाथ में लेकर उमड़ पड़ते हैं. सवाल यह उठता है कि इन सबकी नौबत आती क्यों हैं? हम मानते हैं कि सत्याग्रह, आंदोलन ,धरना प्रदर्शन सब हमारा संवैधानिक अधिकार है. धरना, प्रदर्शन,आंदोलन, सत्याग्रह यह सब तब शुरू होता है जब सामने वाला अर्थात समस्या को हल करने वाली अथारिटी मामले  को उलझा दे. इस अडियलपन के पीछे हो सकता है उनको किसी  के द्वारा अर्थात प्रशासनिक लोगों के द्वारा ही बताई गई कोई मजबूरी हो. पहले आंदोंलनों का फैलाव  प्रायवेट कंपनियों का ज्यादा होता था चूंकि वे अपने कर्मचारियों को सुविधाएं कम देते थे तथा वेतन से ज्यादा काम कराते थे,कंपनियां अब पटरी पर आ गई हैं उन्होनें बहुत हद तक अपनी स्थिति सुधार ली है वे अपने कर्मचारियों की हडताल से होने वाले नुकसान  को महसूस करने लगे.हडताल  की वजह से कई  कंपनियों मे तालेबंदी हुई और कुछ मालिकों को तो राजा से रंक बना दिया गया. सारा अनुभव पाकर कंपनियों ने अपनी व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन किया. कर्मचारियों को खुश रखने उत्पादन बढ़ाने के लिये उन्होंने न केवल अच्छी तनखाह देना शुरू किया बल्कि समय समय पर त्यौहार और अन्य मौकों पर उन्हे गिफट देकर भी उपकृत किया . कर्मचारियों के आवास, उनकी  चिकित्सा, व बच्चो की पढ़ाई और अन्य अनेक प्रकार की सुविधाएं देने से प्रायवेट कंपनियों में यह स्थिति बन गई कई कंपनियों में लोग उनके परिवार के सदस्य की तरह हो गये. पिछले सालों में गुजरात से एक खबर आई थी कि एक हीरा व्यवसायी ने अपनी कंपनी के लोगों को दीवाली के मौके पर कार और फलेट तक भेंट किये. अगर ऐसा कुछ किसी मध्यम वर्ग के साथ हो जाता है तो वह जिंदगीभर के लिये उन्हीं का होकर रह जाता है. हम इसका जिक्र यहां इसलिये कर रहे हैं चूकि सरकार को भी यह समझना चाहिये कि वह भी एक कपंनी की तरह है, उसे अपने कर्मचारियों को उतनी ही खुशी  देनी पड़ेगी जो निजी कंपनियां अपने कर्मियों को देती हैं. काम की दक्षता के अनुसार वेतन भत्तो का भुगतान करने में क्या हर्ज है? अक्सर सरकारी कर्मचारियों के आंदोलनों में उतरने  के लिये सरकार में बैठे नौकरशाह जिम्मेदार हैं जो कर्मचारियों को  ठीक से टेकल नहीं कर पाते. बीच बचाव के नाम पर तनाव पैदा करते हैं और मामला आंदोलन,धरना,सत्याग्रह और न जाने क्या क्या तक में पहुंच जाता है. अगर आंदोलनों को प्रारंभिक चरणों में ही बातचीत के जरिये किसी निष्कर्ष पर पहुंचा दिया जाये तो ऐसी नौबत ही नहीं आये. छत्तीसगढ़ में पिछले  वर्षो के दौरान आंदालनों की बाढ़ आ गई है. कोटवार, पटवारी, आंगनबाड़ी  संविधा शिक्षकों, मीटर रीडरों,कम्पयूटर आपरेटरों  का आंदोलन कई महीनों तक चलता रहा जिससे सरकारी कामकाज बहुत बुरी तरह पभावित रहा. कई आंदोलन जहां बिना किसी निष्कर्ष के खत्म हो जाता है तो कई में फैसले ऐसे होते हैं जिसके बारे में हमें सोचने मजबूूर होना पड़ता है कि यही दिमाग पहले लगा दिया जाता तो इतने दिनों तक आंदोलन नहीं चलता. चिकित्सा क्षेत्र तथा शहर की सफाई में लगे कर्मचारियों की हड़ताल से कई कई दिनों तक जनता को परेशानियों का सामना करना पड़ता है. निचले स्तर के कर्मचारियों का आंदोलन -वेतन तथा संबन्धित मांगों को लेकर होता है, जिसे त्वरित बातचीत से निपटाया जा सकता है लेकिन अडियलपने के कारण यह लम्बा खिचता चला जाता हैॅ लेकिन बड़े मुद्दे जैसे आरक्षण और किसानों की समस्या जैसे आंदोलनों का फैसला सरकार में बड़े स्तर पर लेने का होता है-ऐसे आंदोलन सरकार की नीतियों पर निर्भर करता है अगर सरकार ने टेक्टिस से मामले का सुलझा लिया तो ठीक वरना ऐसी ही स्थिति बनेगी जैसी गुजरात में पटेलों के आंदोलन से बनी और हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन से बनी.  इन आंदोलनों ने यह भी तो सााबित कर दिया है कि ऐसे आंदोलनों से सरकारी पैसे का किस हद तक नुकसान होता है. छोटे से छोटै आंदोलन में जहां समय की  बर्बादी  हो रही हैं वहीं  बड़े आंदोलन कई करोड़ों रूपये की संपत्ति को फूकने  का काम करते हैं.



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