कोर्ट परिसर की घटना लोकतंत्र के लिये नासूर बन सकती है...



बुधवार को दिल्ली के पटियाला कोर्ट परिसर में हुई हिंसा ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया, इससे पहले तक यह छुटपुट घटनाओं तक सीमित था लेकिन इस बार इसने जो मोड़ लिया उसने सुप्र्रीम कोर्ट को भी  ङ्क्षचतित कर दिया.। संपूर्ण मामले की  जड़ जेएनयू में घटित पाकिस्तान समर्थक व अलगाववादी नारे हैं जो बाद में चलकर दो राजनीतिक दलों के छात्र गुटों की राजनीति में समा गया, जिसमें वकीलों के गुट भी कूद पड़े. इस पूरे मामले को हवा मिली-देशद्रोह के आरोप में जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफतारी से.असल में देखा जाये तो यह सब जेएनयू में छात्र संघ चुनाव के बाद ही  शुुरू हो गया था चूंकि  यहां मुकाबला एबीवीपी और एआईएसएफ के मुकाबला हुआ था जिसमें एआईएसएफ जीत गई थी- कन्हैया को गिरफतार कर 2 मार्च तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया लेकिन उसके पहले कोर्ट परिसर में दोनों घुटों के वकील न केवल भिड़े बल्कि आरोपी कन्हैया को पीटा भी-सुप्रीम कोर्ट ने तुरन्त संज्ञान लिया और कोर्ट की सुनवाई न के वल रूकवाई बल्कि कन्हैेया के सुरक्षा का पूख्ता प्रबंध करने का भी आदेश दिल्ली पुलिस को दिया.  दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइन्स के बावजूद पटियाला हाउस में अराजकता फैलने तथा सुरक्षा बिन्दुओं की जांच हेतु सुप्रीम कोर्ट ने पांच सीनियर एडवोकेट नियुक्त किया. कुछ दिन पूर्व मद्रास हाईकोर्ट के जज द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना से कानून की ढहती दीवारों की भयावह तस्वीर सामने आई थी इसके बाद इस दूसरी घटना में इस पूरे मामले में कई सवाल खड़े कर दिये। राष्ट्र्रवाद के नाम पर गुनहगारों को व्यापक मीडिया कवरेज से भविष्य में उनके राजनीतिक उत्कर्ष की अभिलाषा शायद पूरी हो जाए, लेकिन ऐसे मामलों में बढ़ोतरी लोकतंत्र के लिए नासूर साबित हो सकती है। जेएनयू में देशविरोधी नारों के विरुद्ध राजनीतिक दबाव के बाद ही एफआईआर दर्ज की गई तथा केंद्रीय गृहमंत्री के हस्तक्षेप के बाद गिरफ्तारी होने से पुलिस की निष्पक्षता पर सवाल तो खड़े होते ही हैं। पटियाला हाउस परिसर में पत्रकारों तथा अन्य लोगों की पिटाई के वीडियो सामने आने के बाद भी कोई एफआईआर या गिरफ्तारी न होने से पुलिस द्वारा सरकार के इशारे पर काम करने का जवाब भी मिलता है।  सुप्रीम कोर्ट ने कई आदेशों में स्पष्ट किया है कि पुलिस द्वारा बेवजह गिरफ्तार करने के तरीकों पर रोक लगनी चाहिए। हिरासत में लेने का मकसद पुलिस की जांच है, जिसके आधार पर चार्जशीट फाइल होती है। अदालत द्वारा सजा मुकर्रर करने के बाद ही व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है, लेकिन अब हिरासत में लेकर दंडित करने का प्रचलन बढ़ गया है। ऐसे मामले अदालतों में नहीं टिकते और अंत में व्यक्ति छूट जाता है, लेकिन बेवजह हिरासत से नक्सलवाद और अराजकता पनपती है, जो जेलों के बोझ को भी बढ़ाती है। अदालत में यह मामला भी यदि अंत में छूट गया तो फिर गैरकानूनी हिरासत तथा मानवाधिकार हनन की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?यह भी इस पूरे एपीसोड़ में स्पष्ट हो गया कि दूसरों को न्याय दिलाने वाले काले कोट धारियों ने पहले लखनऊ में हिंसा की और फिर पटियाला हाउस अदालत परिसर में लोगों की पिटाई की। आगे के दिनों में सुप्रीम कोर्ट का रूख क्या होगा इसपर सबकी निगाहें टिकी हुई है.

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