संदेश

अक्तूबर, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुद्दे की बात को किनारे कर फिजूल की बातों पर यह कैसा शोर?

कांग्रेस के कुशासन से त्रस्त जनता ने बड़ी उम्मीदों के साथ नई सरकार बनाने की भूमिका निभाई थी? क्या वह जनता के विश्वास पर खरा उतर रही है? वास्तविकता कुछ यही कह रही है कि जनता को दिये वायदे सब खोखले निकल रहे हैं और सरकार जनता को किये गये वायदों से पीछे हट गई है, सरकार ने जो सपने दिखाये थे वह कोरी कल्पना बनकर रह गये हैं.सरकार स्वयं  आइने के सामने आये तो उसे सारी चीजे साफ दिखाई देगी कि वह अपने  वायदों से कितनी दूर चली गई है. देश में नाराजगी और अस्तिरता का माहौल निर्मित हो रहा है.विपक्ष तो अपना काम इस मामले में हवा देने का कर ही रहा है किन्तु सरकार के अपने लोगों की तरफ से भी जो बाते हो रही है वह समाज को एक गलत संदेश दे रही है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बड़े मुद्दों पर देर तक चुप रहते हैं तब तक पानी सर से उतर चुका होता है.देश को इस समय मन की बात नहीं दिल से दिल मिलाने की जरूरत है-सहित्यकार, फिल्मकार, वैज्ञानिक नाराज हैं, भले ही सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही किन्तु इसे अनदेखा भी तो नहीं किया जा सकता .एक आक्रोश तो आम जनता में भी है- मंहगाई, भ्रष्टाचार तथा कथित अव्यवस्था से लोग परेशान हैं

फेसबुक और व्हाट्सअप में दुनिया तो जुड़ेगी लेकिन क्या साधू और शैतान भी रहेंगे?

मार्क जकरबर्ग भारत आये और उन्होंने फेस बुक को पूरे विश्व में फैलाने की बात कही. वे चाहते हैं कि एक अरब लोग आन लाइन हो जाये,वे यह भी कह रहे हैं कि भारत के बगैर दुनिया से नहीं जुड़ सकते. जब टीवी पूरे विश्व के बाद भारत में इंट्रोड्यूस हो रही थी तब भारत में परंपरा और संस्कृति की दुहाई देने वालों ने ेकोहराम मचा दिया था-सबसे ज्यादा इसका विरोध यहां हुआ था कि इससे हमारी परंपरा, संस्कृ ति नष्ट हो जायेगी लेकिन धीरे-धीरे यह धारणा बदलती गई और टीवी को सबने अंगीकार किया- अब वही लोग घर में सबसे आधुनिक मंहगी टीवी लेकर मनोरंजन कर रहे हैं. खैर यह तो होना ही था, किसी नई चीज को अंगीकार करने में थोड़ा समय तो लगता ही है लेकिन कुछ बुुराइयां तो सभी लेकर आती है उन्हें दूर करने का प्रयास भी उसी तरह किया जाना चाहिये. इसमें दो मत नहीं कि टीवी ने हमारी संस्कृ ति पर जोरदार हमला किया. कुछ मामले में जहां बदलाव हुआ तो कुछ को बिगाड़कर भी रख दिया. विदेशी और देशी का मिलाजुला मिक्श्चर भी सामने आया लेकिन अब जो मार्क  जकरबर्ग का हमला फेसबुक के रूप में हुआ है उसे यद्यपि भारतीयों ने काफी हद तक झेला है उसे और कितना झेल पाये

पैसा कमाने की होड़ में इंसानियत को भी त्यागने लगे कुछ सेवक(?)

पैसा -पैसा और पैसा !इसने इंसान में इतना लालच पैदा कर दिया है कि इसके आगे उसे न दया दिखाई देती है न इंसानियत, जिसके पास है वह कुछ भी कर सकता है कि स्थिति में है और जिसके पास नहीं वह हर ऐसे लोगों के पास बेबस और बेसहारा है, उसके सामने इस मुसीबत से निपटने का सिर्फ एक ही रास्ता दिखाई देता है स्वंय को खत्म कर देना- राजधानी रायपुर से कुछ ही दूर भिलाई और न्यायधानी बिलासपुर से कुछ ही दूर बिल्हा में हुई दो घटनाएं समाज की आंखे खोल देने के लिये काफी है. बिल्हा में एक युवक राजेन्द्र तिवारी को प्राण से इसलिये हाथ धोना पड़ा चूंकि उसके पास एसडीएम द्वारा प्रतिबंधात्मक धारा में जमानत के लिये मांगे गये चालीस हजार रूपये की रिश्वत में देने के लिये पैसा नहीं था. इसका विकल्प उसने उनके दफतर के सामने ही अपने आपको आग के हवाले करने का चुना. दो रोज रायपुर के अस्पताल में इलाज होता रहा और अंतत: उसकी मौत हो गई. इस घटना से जनता का आक्रोश फूटना स्वाभाविक है. एक तरफ सरकार भ्रष्टाचार रोकने के दावे करती है वहीं भ्रष्ट अफसर इतना मांगते हैं कि लोगों के सामने आत्महत्या करने तक की नौबत आ जाती है. सरकार की नौकरी में बैठे ब

रेप पर अदालतें सख्त,ऐसे लोगों को पशुओं की संज्ञा,बधिया करने की सिफारिश,क्या व्यवस्थापिका भी सोचेगी?

लोग अब कब्र खोदकर भी बलात्कार करने लगे हैंं. मेरठ और गाजियाबाद के बीच तलहटा गांव में एक 26 वर्षीय गर्भवती महिला की दो दिन पुरानी कब्र को खोदकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने पूरे यूपी मेंं कानून और व्यवस्था की स्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. इधर यूपी के बाराबंकी में रेप की शिकार एक तेरह साल की बच्ची को अनचाहे बच्चे को जन्म देने मजबूर होना पड़ा वहीं देश की राजधानी दिल्ली और देश के अन्य भागों में सिर्फ एक से दो सप्ताह के दौरान नाबालिग बच्चों के साथ रेप की कई घटनाओं ने देश की अदालतों व अच्छी सोच रखने वाले राजनेताओं को भी सोचने विवश कर दिया है कि काननू को अब कैसा रूप दिया जाये कि ऐसे पशुओं पर किस तरह लगाम लगाई जाये? दिल्ली में निर्भया बलात्कार-हत्या कांड के बाद पूरे देश में एक स्वर से यह मांग उठी थी कि ऐसे दरिन्दों के साथ सख्त से सख्त कार्रवाही की जाये,जस्टिस वर्मा आयोग का गठन भी इसी सिलसिले में किया गया लेकिन देश में इस बुराई पर किसी प्रकार से काबू नहीं पाना यही दर्शा रहा है कि कानूून में अब भी कहीं न कहीं कमी है और ऐसे अपराधियों मेेंं किसी प्रकार का खौफ नहीं है.रेप की घटनाए

'हाथी मेरा साथीÓ नहीं अब छत्तीसगढ़ के जशपुर और कई क्षेत्रों में 'दुश्मनÓ

दो हफते में आधा दर्जन बार हाथी का इंसानों पर हमला! और एक पचास वर्षीय व्यक्ति की परसो कुचलकर हत्या के बाद भी प्रशासन का हाथ पर धरे बैठे रहना उसकी विवशता ही दर्शाता है. सरकार का बेबस वन अमला हेल्प लाइन और कुछ सतर्कता उपायों से गांव के लोगों को सतर्क करने के सिवा कुछ भी कर पाने में असमर्थ हैं. हां लोग रात में ड्रम बजाकर व शोर मचाकर यह कोशिश जरूर करते हैं कि हाथी उनके पास तक न पहुंचे. हाथियों के उत्पात ने कई गांवों की नींद खराब कर दी है.यह सब हो रहा है छत्तीसगढ़ के जशपुर इलाके में! जहां दो सौ गांवों के करीब पांच सौ घरों के लोग हाथियों से परेशान हैं. वे उनकी फसल को नुकसान पहुंचाते हैं घरों को तबाह कर देते हैं तथा सामने इंसान दिखे तो पहले सूण्ड से उठाते हैं, फेंकते हैं और फिर पैरों से कुचलकर मार डालते हैं. इन गांव वालों की रक्षा के लिये न पुलिस वाले हैं ओर न कोई हाथियों के बारे में जानने वाले विशेषज्ञ! सालभर निर्दोषों की हत्या,फसल व संपत्ति को नुकसान का सिलसिला चलता रहा है अभी दो रोज पहले भी ऐसा हुआ जब भारत सरकार द्वारा संरक्षित कोरवा जनजाति पर हथियों का हमला हुआ... पूरा परिवार कहीं जा रह

किसने किया समाज को विभक्त? क्यों चल रहा है आजाद भारत में दोहरी व्यवस्था का मापदण्ड?

भेद-भाव ,ऊच-नीच, बड़ा-छोटा,अमीर-गरीब, दलित-दबंग और ऐसी कई बुराइयों के चलते हमारा समाज न प्रगति कर पा रहा है और न दुनिया के सामने अपना दम खम कायम कर पा रहा है. हम अपनी ही आंतरिक बुराइयों में उलझे हुए हैं. हमें इसके आगे न कुछ सोचने की फुर्सत है और न ही हम कुछ सोच पा रहे हैं रोज नई-नई बलाओं के चलते निर्वाचित होने वाली सरकार के कुछ लोग (सभी नहीं) यह सोचने विवश है कि वह पहले क्या करें? अपने घर को सुधारे या समाज को सुधारने और विकास में अपना ध्यान लगायें. राजनीति और हमारी सामाजिक व्यवस्था दोनों की ही नकेल ढीली पड़ गई है. हम सोचते थे कि कुछ परिवर्तन आगे आने वाले वर्षों में होगा लेकिन अब उसपर भी पानी फिरते नजर आ रहा है. आखिर हमारी व्यवस्था बिगड़ी कहां से है? ऊपर से या नीचे से? अक्सर हम सारा दोष नीचे को ही देते हैं, चाहे वह सरकारी स्तर पर होने वाली गड़बड़ी हो या सामाजिक स्तर पर होने वाली गड़बड़ी . एक बड़ा घोटाला हुआ तो नीचे का बाबू या चपरासी को बलि का बकरा बनाकर सब कुछ रफा-दफा कर दिया जाता है किन्तु कभी यह नहीं होता कि इसकी जवाब देही तय हो कि आखिर इसके लिये दोषी कौन है? जब हम युद्व लड़ते हैं

राजनीति की बिगड़ी लगाम को थामने एनजेएसी के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट का फैसला!

 विवादित बयानों, भ्रष्ट राजनीति, भ्रष्टाचार तथा आपराधिक तत्वों के बढ़ते हौसले और उनको प्राप्त राजनीतिक संरक्षण के तहत हमारी वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वरूप क्या होगा यह हम नहीं कह सकते लेकिन जो राजनीतिक  माहौल आज दिखाई दे रहा है वह यही संकेत दे रहा है कि कुछ अच्छा नहीं चल रहा. आजादी के बाद से अब तक के वर्षों में तो कम से कम ऐसा कभी नहीं हुआ जो अब हो रहा है. मुंहफ ट और कुछ भी बोलकर विवाद पैदा कर देश की एकता अखंडता और संप्रभुता को खतरे में डालने की प्रवृति हम सबकों सोचने के लिये विवश कर रही है कि हमारा रास्ता कितना कठिन होता जा रहा है. इस संदर्भ में भारत के उपराष्ट्रपति अब्दुल हामिद अंसारी का रायपुर में दिया गया वह बयान भी महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होने कहा है कि 'हमें हमारे राजनीतिक, सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों पर कायम रहना है तथा अपनी स्वतंत्रता का समर्पण किसी महान् व्यक्ति के कहने पर भी नहीं करना है. जिससे वह हमारी संस्थाओं को ही नष्ट करने लगेÓ. अगर हम देश के संविधान की बात करें तो उसे बनाने वालों ने हर व्यक्ति को आजादी कुछ हद से ज्यादा प्रदान की है

खामोश शहर पर फिर डकैतों ने अस्तित्व की छाप छोड़ी दस्युओं की पुलिस को चुनौती!

एक बार फिर राजधानी रायपुर में कठोर अपराधियों ने अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाया है. सेल टैक्स कालोनी के भावना नगर मेें डकैतों ने चंद दिनों के भीतर एक और परिवार को शिकार बनाया, इससे पूर्व समता कालोनी में भी डकैत अपना जलवा दिखा चुके हैं जबकि क्रीस्ट सहायता केन्द्र की नन से बलात्कार के आरोपी भी अब तक छुट्टा घूम रहे हैं लेकिन उस समय तो सारा पुलिस महकमा खुशी से झूम रहा था जब एक उद्योगपति को अपहरण के कुछ घंटो बाद ही रिहा करा लिया गया. उस समय बड़े बडे लोगों ने इस पर संज्ञान लिया और पुलिस को ढेर सारी बधाइयां दी, अब क्या हो गया? क्यों पुलिस खामोश है? आज जब भावना नगर की घटना हुई तो शाबाशी देने वालों को सांप क्यों सूंघ गया? दो डकैती कांड और नन बलात्कार कांड की भीषण और रहस्यमय घटना से जहां सारा शहर दुर्घन्धित है जबकि ऐसी अनेक -अनेक अनसुलझी घटनाओं से शहर के थानों के पन्ने भरे पड़े हैं लेकिन पुलिस हैं कि कयास लगाती बैठी है. भावना नगर में डकैती की घटना में सबकुछ ठीक वैसे ही हुआ जैसे समता कालोनी के इन्कम टैक्स वकील अग्रवाल के घर हुआ. कोई फरक नहीं, वहां ग्रिल तोड़कर घुसे और सेल्सटैक्स  कालोनी के भावनगर म

अंधेरे से उजाले तक का लम्बा सफर,'महुआ वर्षों बाद अब जाकर महका!

                            एक समय था जब राजधानी रायपुर के पश्चिम क्षेत्र में रहने वालों को लोग मजाक उड़ाकर कहते थे कि यह तो गांव से आता है. बात उनकी सही थी आयुर्वेदिक कालेज से टाटीबंध तक जाने में लोगों को डर लगता था चूंकि यहां न स्ट्रीट लाइट थी और न ही कोई रात में आता-जाता था. धीरे धीरे कालोनियों का विकास हुआ. एसबीआई की कालोनी महोबाबाजार में बनी फिर हीरापुर में सर्वोदय कालोनी के नाम से प्रोफेसरों की कालोनी बनी.महोबाबाजार के आसपास पूरे क्षेत्र में धान के खेत व महुुआ के झाड़ हुआ करते थे, इन महुए की महक आज भी पुराने लोगों की नाक में है. इन्हीं महुआ वृक्षों के कारण इस क्षेत्र का नाम महुआ बाजार पड़ा और आज यह महोबाबाजार हो गया.      सुविधाओं के अभाव में जीने वालों को ही सुविधा मिलने पर उसकी खुशी का एहसास होता है. यहां के लोगों ने वर्षों पूर्व इस क्षेत्र में सुविधाओं की मांग करते हुए प्रदर्शन व आंदोलन भी किया. वे चाहते थे कि यहां तक सिटी बसे चले, आमानाका रेलवे क्रासिंग पर ओवर ब्रिज बने, सरोना को भोपाल के हबीबगंज की तरह का स्टेशन बनाये,यहां एक पोस्ट आफिस खुले, सुरक्षा के लिये एक थाना ह

जूता-चप्पल फेक से कालिख पोत तक का सफर-समय के साथ बदलता रहा,विरोध का तरीका भी!

जूता-चप्पल फेक से कालिख पोत तक का सफर-समय के साथ बदलता रहा,विरोध का तरीका भी! सन् दो हजार आठ से दुनिया में बड़े और नामी नेताओं तथा ख्याति प्राप्त लोगों पर जूता- चप्पल फेकने और अपना ध्यान आकर्षित कराने का एक सिलसिला चला हुआ है.विदेश ही नहीं हमारे देश में भी कई बड़े नेता अब तक ऐसे विरोध प्रदर्शन की चपेट मेंं कई देशों के पूर्व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और देशों के बड़े नेता इसकी चपेट में आ चुके हैं. सन् 2008 में अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश पर बगदाद में मुत्ताधर अल जैदी नामक व्यक्ति ने उस समय जूता फेका जब राष्ट्रपति बुश प्रधानमंत्री पेलेस में एक पत्रकार वार्ता को सम्बोधित कर रहे थे. 2009 में चीनी प्रधानमंत्री बेन जरिबाओ पर एक 27 वर्षीय जर्मन मार्टिन झोके ने यह कहते हुए जूता फेका कि कैसे हम इनके झूठ को सुने? विदेशों में तो नेल्सल मण्डेला भी इससे नहीं बचे फिर भारत में तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी,नवीन जिंदल,पी चिदम्बरम जैसी बड़ी हस्तियों के अलावा कर्ई हस्तियां जूता प्रहार झेल चुके हैं जबकि ऐसे कृत्यों के साथ कालिख पोतने की भी घटानाएं लगातार सुर्खिया

'तो के बगैर अब कुछ नहीं, यह अब सरकारी मदद और काम का हिस्सा बना!

! मां बव्चे से कहती है -गिलास भर दूध पियोगे 'तोÓ तुम्हे घूमने ले जाएंगे खिलौने लेकर देंगे..यही 'तोÓ अब रोजमर्रे की जिंदगी का 'तोÓ बन गया है-इसका महत्व इतना बढ़ गया है कि अब इसके बगैर कोई काम नहीं होता. काम चाहिये तो पैसा, पैसा कमाना हो तो काम,जमानत चाहिये तो पैसा, शादी करना हो तो दहेज,मरना हो तो लकड़ी या कब्र... और न जाने क्या क्या? सबसे मजेदार बात तो यह कि अब सरकार भी तो-तो करने लगी है.हाल ही सरकार ने एक पहल की उसमें भी उसने तो लगा दिया-यह पहल थी Óयादा से Óयादा लोगों को रोजगार देने की..सरकार ने नियोजकों पर शर्त लगा दी कि अगर आप अपने संस्थान में Óयादा से Óयादा लोगों को रोजगार देंंगे तो आपको इंकम टैक्स में छूट दी जायेगी. यह तो कुछ दिन जारी रहेगा फिर खत्म हो जायेगी. असल में यह सरकार की योजना का हिस्सा है जिसमें उसने घोषणा की थी कि हम Óयादा से Óयादा बेरोजगारों को नौकरी पर लगायेंंगे, सरकार ने  बहुत प्रतीक्षा की लेकिन Óयादा लोग नौकरी पर नहीं लग सके तो फिर एक स्कीम तैयार की गई जिसमें उसने तो लगा दिया- इंक म टैक्स में छूट चाहिये तो Óयादा लोगों को नौकरी पर लगाओं. बहरहाल यह योजना

विकास की छाया में पल गये कई टैक्स और कंकाल में बदल गया आम आदमी!

डेव्हलपमेंट की छाया में जो टैक्स थोपे जा रहे हैं उसने सामान्यजन के रास्ते को कठिन बना दिया है. वह न कुछ बोल पा रहा है और न कुछ कर पा रहा है जिसके पास पहले से मिल रही तनख्वााह है वह दुविधा में है और जिसके वेतन में बढ़ौत्तरी की गई है वह भी परेशान है.किसान ऋण के बोझ तले दबा है तो आम आदमी मंहगाई और भारी टैक्स के बोझ तले! किसानों ने ऋण को लेकर मौत को चुना तो अब आम आदमी भारी टैक्स और मंहगाई को लेकर फ्रस्टेशन में हैं, उसके सामने परिवार चलाने की समस्या है. केन्द्र की नई सरकार ने तो पिछले एक साल में टैक्स लादा ही है वहीं राज्यों की सरकार और इन राज्य सरकारों के अधिनस्थ काम करने वाली स्वायत्त संस्थाओं ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. विकास के नाम पर हमारी जेब से पैसा निकालना जारी है. चाहे वह किसी भी टैक्स के रूप में क्यों न हो. सड़क पर चलो तो टोल टैक्स और घर में बैठों तो स्वच्छता के नाम पर! लेकिन सुविधाएं जो इन टैक्सों के नाम पर कथित रूप से दी जा रही है वह किसी देने वाले को पता ही नहीं चल रही. जबकि वह इन्कम टैक्स भी पटा रहा है,संपत्ति कर भी पटा रहा है और सैकड़ों अन्य कर भी पटा रहा है साथ ही कचरा फ

सरकार की खामोश जांच प्रणालियां दवा का तो काम करती है,देरी भी उतनी ही!

 विभागीय जांच,सस्पेण्ड, लाइन अटैच, मजिस्ट्रीयल जांच और ज्यादा हुआ तो सीआईडी अथवा सीबीआई या न्यायिक जांच -यह कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिन्हें सरकारी तौर पर दवा के रूप में उपयोग किया जाता है. इनमें से कुछ ऐसी है जिनका असर कभी दिखाई ही नहीं देता अर्थात जांच रिपोर्ट कब आती है और क्या निर्णय होता है यह किसी को मालूम नहीं होता. सरकार की यह सब प्रक्रियाएं कुछ को छोड़कर तब अपनाई जाती है जब कोई सीरियस घटना होती है और जनता इसको लेकर उद्वेलित होती है. मोटे तौर पर कहा जाये तो इन प्रक्रियाओं में से बहुतों का संबन्ध सरकार की कार्यप्रणाली से जुड़ा है. कुछ जांच के आदेश मजबूरन दिये जाते हैं जब जनता उस घटना को लेकर आक्र ोश में आ जाती है गुस्से में मारपीट की नौबत आती है पथराव, आगजनी और बड़ी हिंसा की वारदात होती है. कुछ कर्मचारियों द्वारा कथित तौर पर गलतियां करने और सरकारी कामकाज में ढिलाई करने आदि पर होती है जिसमें विभागीय जांच या सस्पेण्ड जैसी कार्रवाही होती है. अमूमन सारी जांच प्रक्रियाओं में कई दिनों तक की देरी संभावित है लेकिन जांच का आदेश या आयोग बिठाकर सरकार उस समय होने वाली घटना के सरदर्द से बच

छत्तीसगढ़ में बुनियादी शिक्षा को यूं बिगाडऩे का ठेका किसने दिया?

एक समय ऐसा था जब छत्तीसगढ़ के रायपुर में स्थापित रविशंकर विश्वविद्यालय ने अपने घपले-घोटाले जिसमें रद्दी कांड,फर्जी डिग्री कांड, अंकसूची कांड आदि के चलते अपनी साख खो दी थी-यहां तक कि इस विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर निकलने वाले छात्रों को कहीं नौकरी पर लगाने से पहले भी लोग दस बार सोचते थे- इस स्थिति से निजात पाने में विश्वविद्यालय को वर्षों लग गये. अब ले देकर यह विश्वविद्यालय अपनी साख पुन: कायम करने में ज्यों त्यों सफल हुआ है, तभी छत्तीसगढ़ की बुनियादी शिक्षा पर प्रश्र चिन्ह लगता नजर आ रहा है- यहां कि शिक्षा, शिक्षक और संपूर्ण व्यवस्था को सम्हालने वाले प्राय: सभी इस समय न केवल संदेह के दायरे में हैं बल्कि उनपर गंभीर आरोप भी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि बुनियादी शिक्षा की जड़े ही जब मजबूत नहीं हो पा रही है तो क्या यहां कि उच्च शिक्षा और अन्य शिक्षा से जुड़ी संस्थाएं विश्व की बात छोड़े अपने देश में ही अपना अस्तित्व जमा सकेंगी?. मध्यप्रदेश में हुए व्यापमं घोटाले के तो तार यहां से जुड़े होने के कुछ-कुछ प्रमाण मिले हैं अब दुष्कर्म मामले में जेल में बंद आसाराम बापू के कथित दिव्य पुस्तकों

रक्त ऐसे बह रहा जैसे नदी बह रही हो, किस-किस पर रोयें?

 रक्त ऐसे बह रहा जैसे  नदी बह रही हो,  किस-किस पर रोयें?  मांस खाने वाले प्राणी का पूरा जीवन ही मारकाट से भरा रहता है, किसी निर्जीव की हत्या करते समय उसे जरा भी  ज्ञान नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है, उसे सिर्फ चिंता रहती है कि अपना पेट कैसे भरा जाये? जन्मजात मांसभक्षी होने से उसे इस बात की चिंता नहीं कि कौन कैसा है और उसके मरने से उसे क्या मिलने वाला ? लेकिन क्या मनुष्य भी जंगली जानवरों की तरह है?-उसे तो बनाने वाले ने इतनी सोचने की शक्ति दी है कि वह अच्छा बुरा क्या है बखूबी समझ सकता है. वह क्यों जानवरों की तरह हरकत करता है-मानते हैं कुछ लोगों को जानवरों का मांस खाने की जन्मजात आदत है किन्तु ऐसा भी तो मत करों कि उस प्राणी का अस्तित्व ही इस संसार से मिट जाये! अपने स्वार्थ और अपनी खुशी के लिये मनुष्य ने जानवरों का तो वध किया है और उनके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया मगर अब वह इसे लेकर या अन्य दूसरे बहानों के बल पर अपने ही जैसे और अपने खून का भी वध करने पर उतर आया है. कहीं कोई कुछ बहाना बनाता है तो कहीं कुछ. विश्व  का एक पूरा भाग आतंकवाद के उन्माद में डूबा है तो दूसरी तरफ जहां शांत

और अब हूँन ने भी लिख डाली पुस्तक

...और अब हून ने भी लिख डाली पुस्तक-ऐसा दावा किया कि सब सोचने हुए मजबूर! रिटायर होनेे के बाद प्राय: कुछ लोगों को पुस्तक लिखने का शौक आ जाता है लिखवाने और छपवाने दोनों के लिये उनके पास लोगों की कोई कमी नहीं रहती और वे उसका भरपूर फायदा भी उठाते हैं. यूं तो उनकी आत्मकथा से किसी  को कोई लेना देना नहीं होता लेकिन जब ऐसे लोग किसी स्वर्गीय प्रसिद्व लोगों का नाम और उनके जीवन में घटित घटनाचक्र का खुलासा करते हैं तो स्वयं तो चर्चा में आ जाते हैं दूसरों को भी खुलकर बोलने का मौका देते हैं. अब कोई मृत व्यक्ति अपना स्पष्टीकरण देने आनेे वाला तो नहीं तो फिर क्यों न ऐसी कुछ बातों की कल्पना की जाये जो 'शायदÓ की श्रेणी में आती हो.  हाल के वर्षों में जीवनी लिखने वालों की बाढ़ सी आ गई है. इनमें से उस समय के लोग भी हैं जो स्व.जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के जीते जी उनके खिलाफ मुंह खोलने की भी हिमाकत नहीं करत थेे. जहां तक नेताजी सुभाषचंद बोस की जीवनी का सवाल है उनकी मृत्यु को लेकर बहुत सी भ्रांतियां है यह बाते आज भी सामने आये तो बात समझ में आती है लेकिन इंदिरा और नेहरू के समय के लोग तो अब भी जीवि

डेढ़ सौ साल पहले बना लाउड़स्पीकर अब इंसान का दुश्मन बना!

लाउडस्पीकर की आवाज से लोगों को इतनी नफरत हो गई है कि जोर से बोलने वालों को भी अब लोग लाउडस्पीकर का नाम देने लगे हैं. आज की दुनिया में लोग लाउडस्पीकर पर प्रतिबंध नहीं चाहते बल्कि इसके  उत्पादन पर ही प्रतिबंध चाहते हैं.यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने आस्था स्थलों पर लाउडस्पीकरों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने से मना किया है लेकिन लोगों को तो समझना चाहिये कि यह आम लोगों के लिये कितना अनुपयोगी व हानिकारक है. अब तो लाउडस्पीकर लोगों की जान के दुश्मन बनने लगे हैं.ऐसे में क्या लाउडस्पीकर का उपयोग जारी रखना उचित है? आस्था केन्द्रो में सदैव शाङ्क्षत होनी चाहिये चूंकि यह उस परमात्मा का वासस्थल है जिसने दुनिया को बनाया है अगर वहीं आप अशांति फैलाओगे तो फिर इसका मतलब तो यही है कि आपको उन्हीं पर विश्वास नहीं है, बहरहाल आज हालात यह हो गये हैं कि लाउडस्पीकर आज नफरत फैलाने का भी एक जरिया बन गया है. हर पांचवी हिंसा की घटना नफरत की लाउडस्पीकर से निकल रही है. अब देश में लाउडस्पीकर का बड़ा भाई डीजे भी सड़क पर उतर आया है जो लोगों की धड़कनों पर सीधा प्रहार करता है कई लोगों की धड़कने इसकी आवाज से बंद हो जाती है. देश की

करोड़ों का एम्स क्या अंचल की आशाओं,आकाक्षांओं पर खरा उतर रहा! यहां क्या हो रहा है?

करोड़ों रूपये खर्च कर रायपुर में बनाया गया अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान  संस्थान 'एम्सÓ क्या छत्तीसगढ़ के लोगों की आशाओं के अनुरूप खरा उतर रहा है? या आंतरिक गुटबाजी, अव्यवस्था और अनुशासनहीनता जैसी बुराइयों में फंसता जा रहा है? एक सौ बीस एकड़ से ज्यादा क्षेत्र में फैले इस ख्याति प्राप्त अस्पताल का विवाद शुरू से इसके साथ रहा है. एम्स बनाने की घोषणा के बाद कई वर्षों तक न इसके लिये बजट स्वीकृत किया गया और न ही कोई संज्ञान लिया गया. ले देकर कार्य शुरू हुआ तो फंड का रोना रोते हुए कई बार निर्माण कार्य में विलंब हुआ और कोई न कोई अड़ंगा आता रहा. आखिर दो साल पहले इसका उद्घाटन हुआ तो बस कुछ ही तरह की चिकित्साएं यहां सुलभ हुई. अब तो आलम यह है कि अस्पताल बनाने वाली कंपनी आगे का निर्माण कार्य बीच में ही छोड़कर चली गई. बताया जा रहा है कि कंपनी का पेमेन्ट नहीं दिया गया है ऐसे में उसके लिये आगे का काम जारी रखना मुश्किल है वह अपना बोरिया बिस्तर बांधकर रायपुर से चला गया. स्थानीय अस्पताल प्रबंधन का यद्यपि इस मामले में हस्तक्षेप नहीं है लेकिन कंपनी द्वारा फिनिश्ंिाग कार्य व अन्य जो कार्य उसे करना था उसे