गांवों में बिजली-पानी नहीं होने का दर्द...!



यह सन् 1950 के बाद के वर्षो की बात है जब हम भोपाल में रहा करते थे, एक ऐसी कालोनी जहां बिजली होते हुए भी हमारे पास पंखा नहीं था, प्रकृति की हवा मे जीना ही हमारी दिनचर्या थी.गर्मी में सारे शरीर पर घमोरियां परेशान  करती थी,हमें इंतजार रहता था बारिश का कि बारिश होगी तो इस समस्या से मुक्ति मिलेगी लेकिन आगे के वर्षो में हम भाइयों ने गुल्लाख में जेब खर्च इकट्ठा करके एक टेबिल फेन लिया तो लगा कि इसके नीचे सोने वालों को कितना मजा आता रहा होगा.हमें पानी   सार्वजनिक नल या कुए से भरना पड़ता था जहां अलग अलग राज्यों से आये लोगो से झगड़ा भी करना पड़ता था चूंकि कोई एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे. बहरहाल इस दुखड़े के पीछे छिपा है वही दर्द जो आजादी के पैसठ वर्षो बाद भी हमारे देश के करोड़ों लोगों को झेलना पड़ रहा है जो बिना बिजली-पानी के दूरदराज गंावों में निवास करते हैं.उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं. वातानुकूलित कमरों में बैठकर विकास की बात करने वाले हमारे मंत्री नेता सिर्फ बाते ही करते हैं.जनता की सेवा के नाम पर  वोट मांगते हैं लेकिन उस गरीब, आदिवासी, हरिजन या सामान्य वर्ग की जनता की कुटिया की तरफ पांच वर्षो तक कभी  झांकते भी नहीं जिसकी  बदौलत वे सिंहासन तक पहुंचे हैं. इसकी पोल तभी खुलती है जब दूसरी बार फिर इनकी जरूरत पड़ती है. लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान छत्तीसगढ़ मेें बिलासपुर क्षेत्र के करीब तीन  सौ गांवों की जिन गंभीर समस्या पर से पर्दा हटा है वह संपूर्ण व्यवस्था की पोल ही खोलकर रख देता है. पोल उस समय खुली जब सोलहवीं लोकसभा के लिये मतदान दलों को इन ग्रामीण क्षेत्रों में भेजा गया. मतदान दलों के लोग स्वंय चौक गये कि क्षेत्र में बिजली नहीं है और उन्हें लालटेन का सहारा लेना पड़ेगा. तीन सौ गांवो में लालटेन के जरिये मतदान कार्य करना पड़ेगा. अब सवाल यह उठता है कि विकास की सारी बाते दिखावे की है. ग्रामीण क्षेत्रों  को सुविधाओं से क्यों वंचित रखा जा रहा है या जो सुविधाएं पहुंचाने के दावे किये जा रहे हैं वह सब झूठे व मनगढंत है. हकीकत यही है कि ग्रामीणों को देश की आजादी व विकास का कोई फायदा नहीं मिल रहा. सवाल यह उठता है कि क्या ग्रामीण इलाकों में रहने वालों को शहरियों की तरह विकास व आवश्यक मूलभूत सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है?http://majosephs.blogspot.in/?spref=fb

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