इतना तो मत चिल्लाओं कि सियार भी शरमा जायें!

रायपुर, दिनांक 21 सितंबर 2010
इतना तो मत चिल्लाओं कि
सियार भी शरमा जायें!
हम कितने स्वतंत्र हैं? क्या आप महसूस नहीं करते कि हमारे संवैधानिक अधिकारों और हमारी स्वतंत्रता पर कोई न कोई खलल डाल रहा है? कोई हमारे घर के सामने जोर-जोर से लाउड स्पीकर बजा रहा है तो कोई हमारे घर के ठीक सामने कचरों का ढेर लगा रहा है। कोई सड़क पर बेतुके हॉर्न से हमारी एकाग्रता को भंग कर रहा है या फिर सड़कों को घेरकर अपना कब्जा जमा ये बैठा है। मुम्बई में सुपर स्टार अमिताभ बच्चन या लता मंगेशकर जैसी हस्तियां भी अपनी स्वतंत्रता के हनन से दुखी हैं। हम अपनी बात करें- कहने को हमें संविधान ने स्वतंत्रता से लाद दिया है, लेकिन हकीक़त क्या यही है कि हम संविधान प्रदत्त अधिकारों का उपयोग कर रहे हैं या हमें वह स्वतंत्रता मिल रही है। जो हमने अंग्रेज़ों से छीन कर हासिल की। क्या हमारी व्यवस्था ऐसी है कि वह हमारी स्वतंत्रता पर खलल डालने वालों से निपट सके? कानून यह कहता है कि कोई अगर सार्वजनिक नल पर नहाये या सार्वजनिक जगह पर थूक दे तो उसपर भी कार्यवाही की जा ये। लेकिन हम स्वतंत्रता का इस हद तक दुरुपयोग कर रहे हैं कि सार्वजनिक स्थल पर थूकने की बात छोडिय़े लघुशंका व दीर्घशंका तक करने से नहीं चूक रहे हैं और देश का कानून इन सब मामलों में मौन है। हम कितने स्वतंत्र हैं-हम अपने घर पर ताला लगाये बगैर बाहर नहीं जा सकते, हम सड़क पर ज्यादा पैसे लेकर नहीं निकल सकते। हम अगर थोड़ी देर के लिये भी अपनी लाइन से बाहर जायेगें तो उस जगह दूसरे का कब्ज़ा हो जाता है। हमारी हर गतिविधियों पर किसी की नजर है। हमारी कोई गोपनीयता नहीं है-टेलीफ़ोन टेप हो जाते हैं ,घर- परिवार और हमारी हर गतिविधियों की जासूसी हो जाती है। संविधान में लिख भर देने से क्या हम स्वतंत्र हैं या हमारे अधिकार हमें प्राप्त हो रहे हैं? एक अदना सा नेता सड़क पर लाल बत्ती लगाकर निकल जाता है तो पुलिस वाला हमें ऐसे हांकता है जैसे हम कोई गाय- बैल हों। किस तरह की व्यवस्था में हम लोकतंत्र की दुहाई देते हुए जी रहें हैं। क्यों नहीं हमारी व्यवस्था अनुशासन का पालन करने के लिये मजबूर करती। हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि अगर प्रशासन- शासन चाहे तो संपूर्ण व्यवस्था पटरी पर आ सकती है लेकिन इसके लिये दृढ संकल्प और इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। एक छोटा सा उदाहरण देने से यह बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोग ट्रैफिक से बुरी तरह परेशान रहते हैं। कुछ दिनों से पुलिस की मामूली सख़्ती के आगे संपूर्ण व्यवस्था धीरे- धीरे पटरी पर आने लगी। लोगों को यह महसूस होने लगा कि लाइन से बाहर रखोगे तो गाड़ी पर जुर्माना होगा तथा पुलिस की अन्य प्रक्रियाओं से गुजरना होगा आदि। इससे पूर्व के फ्लैश पर एक नजर दौड़ाइयें- लोग कहीं भी गाड़ी खड़ी कर देते थे और जैसा चाहे वैसा सिग्नल तोड़कर भाग जाते थे। यह प्रक्रिया अनुशासन को लागू कराने के मामले में सभी पर अपनाया जाये तो हर आदमी अपनी स्वतंत्रता का भरपूर उपयोग कर सकेगा। हम अपने टाटीबंद इलाके की ही बात बताते हैं। यहां मंदिर भी है, चर्च भी है, गुरुद्वारा अयैपा मंदिर और मस्जिद भी है-सब एक साथ चिल्लाते हैं तो यहां भगवान कम आसपास के लोग भी सही ढंग से नहीं सुन पाते। कभी एक साथ त्यौहार आ गया तो इंसानों को उन सियारों की याद आ जाती है जो जंगल में एक के चिल्लाने पर एक साथ चिल्ला पड़ते हैं। ईश्वर को श्रद्धा से शांतिपूर्वक ढंग से स्मरण करो, क्यों उन्हें इतना तंग कर डालते हो कि वह तो क्या उनके शांतिप्रिय भक्तों की दिनचर्या में भी खलल पडऩे लगती है।

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